2122 2121 1212 22
तुम जो साड़ी में यूँ खिलता गुलाब लगती हो
दिल ये कहता है की बस लाजवाब लगती हो
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किस तराज़ी से तराशा है तुम्हें रब ने भी
दिल पे लगती हो तो सीधे जनाब लगती हो
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हो गई सारी फ़ज़ा देख कर यूँ ही ताजा
चाँद जैसा है बदन पर खुशाब लगती हो
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रोज़ करते हैं इबादत अज़ब करिश्मा है
आयतों की कोई जैसे किताब लगती हो
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किस क़दर हैं ये नशीली सी जह्र दो आँखें
लाज़मी है गर जो ज़िंदा शराब लगती हो
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हाय कैसी क़हर अदायें हैं 'सरफ़रोशी है
चाह पाने की सनम' तुम गुराब लगती हो
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आज़ देखा फिर यूँ साथ आसमां ज़मी हमने
आज़ तुम महताब तुम ही गुलाब लगती हो
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गर तबस्सुम पे गुरूर आये 'एक इक लब पे
फिर शुरूर आये' 'तड़प हो' अजाब लगती हो
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यूँ की बस पा ही लिया दिल ने हो जिसे आज़ी
जान ए जाँ तुम ही वो हसरत वो ख़्वाब लगती हो
(मौलिक व अप्रकाशित)
✍ आज़ी तमाम.........
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