मुफाईलुन*4
खरीदूँ कौन सी सब्जी बड़े लगते झमेले हैं
कहीं लौकी कहीं कद्दू कहीं कटहल के ठेले हैं
इधर भिन्डी बड़ी शर्मो हया से मुस्कुराती है
अजब नखरे टमाटर के पड़ोसी कच्चे केले हैं
तुनक में मिर्च बोली आ तुझे जलवा दिखाती हूँ
कहे धनिया हमें भी साथ ले लो हम अकेले हैं
शकरकंदी,चुकंदर ने सजाई नाज से महफ़िल
सुनाया राग आलू ने मगन बैगन,करेले हैं
घड़ी भर को जरा पहलु में लहसुन,प्याज आ बैठो
जुदाई में तुम्हारी 'ब्रज' ने कितने रंज झेले हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
तहे दिल से शुक्रिया ज़नाब सालिक गणवीर जी...
भाई ब्रजेश कुमार जी
सादर अभिवादन
बढ़िया ग़ज़ल कही आपने. बधाइयाँ स्वीकारें.
कोई बात नहीं ।
माफ़ कीजिये आदरणीय समर जी टाइपिंग मिस्टेक हुई है टिप्पड़ी में और उसे हटाने का ऑप्शन भी नहीं दिख रहा।
आदरणीय धामी जी रचना पटल पे आपकी उपस्थिति से अति प्रसन्नता हुई...सादर
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज' जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन । बहुत ही सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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