सच यह है कि
अंधा होने के लिए नेत्रहीन होना कोई शर्त नहीं होती
वरना किसी युग में द्रौपदी कभी कहीं नही रोती
बल्कि सच यह है कि
जब जब राजा अंधा होता ,पूर्ण अंध हो जाता काज
क्या मर्यादा,वचन प्रतिज्ञा सब का सब कोरी बकवास
सच ही तो है कि
पाँच पतियों की भार्या थी वो ,आर्य वंश कि आर्या थी वो
गृह लक्ष्मी वो हुई अवाक सब थे सामने लुट गई लाज
भीष्म मर्यादित राज सभा पर नहीं उठी प्रतिरोध आवाज़
सच है तो यह कि
युग ही का यह अंतर है कि आज आवाज़ें उठती हैं
सीता हो या हो अहिल्या चीखें अब नहीं घुटती हैं
मूक कोख ने मूक जने थे अब उस ने चीत्कार जनी है
कटी जुबाँ तहरीर बनी है मेरे युग की तस्वीर बनी है
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत ही सारवान रचना के लिये बधाई आपको...
आ०समीर साहब
सराहना के लिए शुक्रिया
डा० विजय जी
खुशी हुई की मेरे जज़्बातबात को समर्थन मिला , सच बात तो यही है कि मूक रहना भी तो अपनी ज़ुबान से धोका ही तो है /
सादर
अमिता
सच तो यह भी है कि धृष्टराष्ट्र की परम्परा भी कभी समाप्त या विलुप्त भी नहीं होती है। आपकी कविता में वज़न है , अच्छी है। बधाई। सादर।
सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई ।
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