छोटी बातों से तू इतना, विचलित क्यूँ कर होता है
जीवन धार नदी की, इसमें उन्नीस बीस तो होता है
दुनियाँ का दस्तूर है, ज्यादा रोते को रुलवाने का
कितना समझाया तुझको तू, फिर भी नयन भिगोता है
जाने वाले साल को सारे, दुख अपने तू अर्पण कर दे तेरे भाग्य में फिर वो कैसे, बीज खुशी के बोता है
अस्त हुआ उन्नीस का भानु, बीस का दिनकर द्वार खडा
रजनी की बाहों में लिपटा,तू अब भी बेसुध सोता है
मंदिर मंदिर दौड रहा था, प्रबल भाग्य तू करने को
स्वंय लक्ष्मी है खडी द्वार पे, और तू माथा धोता है
अवनि सबकी पालन कर्ता, कुछ भीतर ना रखती है
वही काटता मनुज जो धरती, के अंदर वो बोता है
सच्चे मन से पूजा अर्चन,‘दीप’ करो तुम ईश्वर की
सर्दी के मौसम में प्रतिदिन, कौन नहाता धोता है
-प्रदीप देवीशरण भट्ट-01.01.2020
Comment
विजय जी शुक्रिया
अच्छी रचना के लिए बधाई, मित्र प्रदीप जी।
नवनूतन वर्ष मंगलमय हो, धन्य्वाद छोटेलाल जी
नव नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ शुक्रिया आशीष जी
सुरेंद्र जी नव नूतन वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ एव्म धन्यवाद
नव नूतन वर्ष की शुभकामनाएँ,
शुक्रिया लक्ष्मण धामी जी
आ. भाई प्रदीप देवीशरण जी, सादर अभिवादन। नववर्ष पर सकारात्मक सोच फैलाती सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई।
आद0 प्रदीप देवी शरण भट्ट जी सादर अभिवादन। बढ़िया सोच को परिलक्षित रचना के लिए बहुत बहुत बधाई।
बहुत खूब। मार्गदर्शक भी। अंत में"नहाने-धोने" की बात तो और मजेदार लगी।
आदरणीय प्रदीप जी इस आकर्षक उन्नीस बीस प्रयास के लिए बहुत बहुत बधाई
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