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कुछ थे अधूरे काम सो आना पड़ा हमें.
फ़ानी बदन में ख़ुद को समाना पड़ा हमें
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जश्न-ए-जहान था ही नहीं अपने वास्ते
आ ही गए तो जश्न मनाना पड़ा हमें.
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फिर जब पहेली मौत की हल हो नहीं सकी
मजबूरी में ख़ुदा को बनाना पड़ा हमें.
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बाहर कहीं जो रब का पता मिल नहीं सका
वापस फिर अपने आप में आना पड़ा हमें.
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फिर अपनी ख़ाक ही से न उगने लगे कहीं
सो हम जो मर गए तो जलाना पड़ा हमें.
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मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
आभार आ. सौरभ सर
आभार आ. लक्षमण जी
आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
फिर अपनी ख़ाक ही से न उगने लगे कहीं
सो हम जो मर गए तो जलाना पड़ा हमें.
क्या-क्या सोच लेते हैं, आप भी ! .. जय हो..
शुभातिशुभ
धन्यवाद आ. आज़ी तमाम भाई
जी बहुत ख़ूब ग़ज़ल हुई आ नूर साहिब बधाई 🙏
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