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गिरिराज भंडारी's Blog – November 2015 Archive (6)

अतुकांत - आस्तीन मे छुपे सांप ( गिरिराज भंडारी )

आस्तीन मे छुपे सांप

*****************

किसी हद तक सच भी है

आपका कहना

चलो मान लिया

 

आस्तीन मे छुपे सांप

हमारी रक्षा के लिये होते हैं

और हमे काट के या  डस के अभ्यास करते हैं

ताकि हमारा कोई दुश्मन हमपे वार करें

तो ,

हमें ही काट के किया गया अभ्यास काम आये

 

अब सोचिये न

क्या दुशमनी हो सकती है हमारे से ?

उस चूहे की

जो हमारे ही घर मे रह के

हमारे ही अन्न जल मे पलके बड़ा होता है …

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Added by गिरिराज भंडारी on November 28, 2015 at 10:22am — 5 Comments

अतुकांत - काँव काँव से दीवारें नहीं गिरती ( गिरिराज भंडारी )

सच है 

कि, प्रकृति स्वयं जीवों के विकास के क्रम में

जीवों की शारिरिक और मानससिक बनावट में

आवश्यकता अनुसार , कुछ परिवर्तन स्वयं करती है

चाहे ये परिवर्तन करोड़ों वर्षों में हो

इसी क्रम में हम बनमानुष से मानुष बने …..

 

लेकिन ये भी सच है कि,

मानव कुछ परिवर्तन स्वयँ भी कर सकते हैं

अगर चाहें तो

 

और फिर हमारा देश तो आस्था और विश्वास का देश है

जहाँ यूँ ही कुछ चमत्कार घट जाना मामूली बात है

मै तो इसे मानता हूँ ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 25, 2015 at 7:00am — 7 Comments

ग़ज़ल -बच गये तो शेर, वर्ना कागज़ी थे, सोचिये - ( गिरिराज भंडारी )

2122 2122 2122 212

छोड़िये पानी में उनको तज़्रिबा तो कीजिये

बच गये तो शेर, वर्ना कागज़ी थे, सोचिये



दोस्त हैं हम आपके, इतना तो हक़ होगा हमें

दर्द अपना, आपको दे, कह सकें, सह लीजिये



हम भरोसा किस तरह कर लें, बतायें हाल पर

जब्र से इतिहास उनका है भरा, पढ़ लीजिये



जिनकी है बारूद चाहत वो ज़मीं को देंगे क्या ?

खूँ बहुत है मुल्क़ में तो आप वो ही सींचिये



आपको इनकार यूँ , शोभा नहीं देता ज़नाब

ज़ह्र तो पीते रहें हैं , और थोड़ा… Continue

Added by गिरिराज भंडारी on November 19, 2015 at 9:47am — 9 Comments

गज़ल - बे आसरा बना के हमें तू खिजा में रख - गिरिराज भंडारी

22  22  22  22  22  22    

 

कोई दीप जलाओ, कि अँधेरा यहाँ न हो ।

कभी रोशनी की बात चले तो गुमाँ न हो ।।

 

जो शय बढ़ा दे दूरियां उसको खुदी कहें ।

हर हाल में कोशिश रहे, ये दरमियां न हो ।।

 

है फ़िक्र ये कि पंछी उड़ें किस फलक पे अब।

ऐसा भी  ख़ौफ़नाक  कोई आसमाँ न हो ।।

 

उजड़ीं है कई आंधियों में बस्तियां मगर ।

जैसे ये घर उजड़ गया, कोई मकाँ न हो ।।

 

मंज़िल से जा मिले जो कभी राह तो मिले।

रस्तों…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 17, 2015 at 7:30am — 13 Comments

गज़ल - अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं - गिरिराज भंडारी

1222     1222      1222     1222

कहो कुछ तो समझ के भी जताते और ही कुछ हैं

अदीबों की ज़ुबाँ में कुछ , इरादे और ही कुछ हैं  

 

रवादारी हो , रस्में या कोई हो मज़हबी बातें

अलग ऐलान करते हैं, सिखाते और ही कुछ हैं

 

उन्हें मालूम है सच झूठ का अंतर मगर फिर भी  

दबा कर हर ख़बर सच्ची , दिखाते और ही कुछ हैं  

 

जो क़समें दोस्ती की रोज़ खाते हैं, बिना…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 8, 2015 at 9:49am — 16 Comments

ग़ज़ल- छिपे मक्कार हैं बहुत (गिरिराज भंडारी)

221    2121    1221      212

शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत  

बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत

 

किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको

जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत

 

अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं

है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत

 

समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये

अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत

 

नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले

वे भी…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 5, 2015 at 8:00am — 46 Comments

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