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जितेन्द्र पस्टारिया's Blog – November 2013 Archive (4)

तेरा सब कुछ है...( अतुकांत )

शरीर तोड़ श्रम के बाद

थक-हार लेट गया

खेत की मेढ में पड़ी,

टूटी खटिया पर..

सर्द हवाओं के बीच

गुनगुनी धूप से तन को राहत मिल रही थी..

पर मन को सुकून नही

वो गुनगुना स्पर्श नही

जो कभी किसी स्पर्श से मिलता था..

 

सोचा..उठूँ, थोडा और श्रम करूँ

फिर बेजान हो इक लाश की तरह घर पहुँच कर,

बिस्तर पर छोड़ दूंगा

जो कल भोर होते ही

फिर से जी उठेगा...

 

चल घर तक चल..

घर राह तक रही है तेरी बूढी…

Continue

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on November 22, 2013 at 1:30pm — 29 Comments

जिम्मेदारी...( लघुकथा )

बेटी..रजनी ! तुम्हारे मामाजी के लड़के से, तुम्हारी ननद याने अपनी गायत्री की शादी, तय हो ही गई, मैं बहुत खुश हूँ, बस..! उन लोगो से लेनदेन की बात संभाल लेना, तुम तो जानती ही हो. आजकल महंगाई आसमान छू रही है.......सुलोचना जी ने अपनी बहु को बेटी बनाकर, बड़े ही प्यार से कहा..

जी हाँ..! माँ जी..महंगाई तो पिछले वर्ष भी आसमान से टिकी हुयी थी, जब आपने मेरे मायके वालों से लाखों का सोना और पूरी गृहस्थी का सामान मांग लिया था..खैर,…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on November 17, 2013 at 9:28pm — 38 Comments

शिक्षा..( संस्मरण)

आसमान पर, बादलों की बेहद घनघोर काली घटा छाई हुयी थी, न जाने इतना पानी बरश के कहाँ समायेगा, जमीन की पूरी गर्मी, बादलों को अपने ऊपर, मेहरबान होने का पूरा जोर लगाकर निमंत्रण दे रही थी..

....तभी एक शानदार चौपहिया वाहन आकर रुका, शायद उसमे कुछ खराबी आ गयी थी, चालक सीट पर बैठे साहब, ने अपनी आखों पर से तपती दुपहरी को, शीतल शाम करने वाला कत्थई पारदर्शी पर्दा उतारा और दरवाजा खोल के बाहर निकले, ऊपर आसमान की तरफ देखते हुए, वास्तविकता की जमींन पर कदम रखकर,सर्वप्रथम अपने छोटे से जेब से, बड़ा…

Continue

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on November 8, 2013 at 12:21pm — 22 Comments

मिट्टी का बर्तन..! ( अतुकांत )

सुन..! मेरे मिट्टी के बर्तन,

तू अपनी असलियत को पहचान

इस संसार की झूठी, खोखली वाहवाही से

परे रहना

अपनी गहराई से ज्यादा, अनुपयोगी द्रव्य को

मत सहेजना, ढुल जाता है..

 

इक दिन निकल गया मैं

किसी के कहने पर

इक नयी मिट्टी का बर्तन बनाने

उस मिटटी में सौंधी खुसबु,

रंग मेरी मिट्टी की ही तरह, साँवला

हुबहू.... मेरे जैसी ही मिट्टी

पर शायद तनिक, कंकरियां मिली थीं,

 

उससे न बना पाया,बर्तन

बनने से…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on November 3, 2013 at 11:30am — 28 Comments

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