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Rajesh kumari's Blog – August 2016 Archive (5)

हमारे देश के मौसम हमें वापस बुलाते हैं ( फिल्बदीह हिंदी ग़ज़ल/गीतिका 'राज ')

१२२२  १२२२   १२२२  १२२२

जहाँ श्री राम की मूरत वहीं सीता बिठाते हैं

जपें जो नाम राधा का वहीं घनश्याम आते हैं

 

करें पूजन हवन जिनका करें हम वंदना जिनकी

वही दिल में हमारे ज्ञान का दीपक जलाते हैं

 

लिए विश्वास के लंगर चलें जो पोत के नाविक

समंदर के थपेड़ों से नही वो डगमगाते हैं

 

पराये देश में जाकर भले दौलत कमाएँ हम

हमारे देश के मौसम हमें वापस बुलाते हैं

 

भरे हम  बैंक कितने भी मगर क्या बात गुल्लक…

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Added by rajesh kumari on August 27, 2016 at 8:18pm — 9 Comments

पकड़कर हाथ राधा का चले जो नूर का बेटा (फिल्बदीह ग़ज़ल 'राज '

पड़े आफ़ात तो छुपता किसी मशहूर का बेटा 

कलेजा शेर का रखता मगर मजदूर का बेटा 



कहीं ऊपर जमीं के उड़ रहा मगरूर का बेटा 

जमीं को चूमता चलता किसी मजबूर का बेटा



कई तलवार बाहर म्यान से आती दिखाई दें  

पकड़कर हाथ राधा का चले  जो नूर का बेटा



सिखाने पर परायों के भरा है जह्र नफरत का 

चला हस्ती मिटाने को कोई अखनूर का बेटा



कदम पीछे हटा लेता जहाँ उसकी जरूरत हो 

हर इक रहबर फ़कत कहने को है जम्हूर का बेटा 



सरापा थाम…

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Added by rajesh kumari on August 23, 2016 at 6:32pm — 23 Comments

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ (ग़ज़ल 'राज')

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ

ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ

 

इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर  से जिसके  

पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ  

 

परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को

बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ

 

भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली

तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ

 

तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो…

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Added by rajesh kumari on August 21, 2016 at 11:30am — 13 Comments

सूखे गमले (लघु कथा 'राज ')

डेढ़ साल हो चुका था नकुल को गये आज भी उस घर की दीवारों चौखटों से सिसकियों  की आवाज सुनाई देती है बगीचे के हरे सफ़ेद लाल फूल उस तिरंगे झंडे की याद दिलाते हैं जिसमें लिपटा हुआ उस घर का चिराग कुछ वक़्त के लिए रुका था | नई नई दुल्हन की कुछ चूड़ियाँ आज भी उस तुलसी के पौधे ने पहन रक्खी हैं | घर में से बीमार माँ की खाँसी की आवाजें कराह में बदलती हुई सुनाई देती हैं|

किसी वक़्त प्रतिदिन पांच किलोमीटर दौड़ने वाले रामलाल की लाठी की ठक-ठक सुबह-सुबह सुनाई दी तो  बदरी प्रसाद ने गेट खोल दिया दोनों…

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Added by rajesh kumari on August 7, 2016 at 7:00pm — 36 Comments

शक (लघु कथा 'राज')

  

“अब बोल चारू कैसे आना हुआ कैसे याद आ गई आज मेरी ” जूही ने चाय  के  प्याले  हटाते  हुए प्यार से ताना देते हुए कहा|

 “बस ये समझ ले मेरा उस जगह से मन भर गया तू यहाँ मेरे लिए मकान ढूँढ ले ”|

  “फिर भी बता न क्या हुआ?”

 “तुझे याद होगा मैंने एक बार बताया था कि मेरे घर के ठीक सामने  सड़क  के  दूसरी पार गाडियालुहारों ने अपनी झोंपड़ियाँ डाल  रक्खी हैं | जिनका काम लोहे से औजार व् बर्तन बनाना फिर उनको आस पास के घरों में बेचना होता है”  |

“हाँ हाँ याद है…

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Added by rajesh kumari on August 2, 2016 at 11:28am — 23 Comments

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