आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय नयना जी, बेहतरीन प्रस्तुति। बाल मन की सहजता को मृत्यु जैसे वीभत्स प्रसंग से जोड़ कर, बहुत सुंदर लघुकथा लिखी गयी है।
आपकी लघुकथा के बारे में आदरणीय अशोक भाटीया जी की पुस्तक 'समकालीन हिन्दी लघुकथा' के पेज नंबर 236 पर लिखित बात को दोहराना चाहता हूं- 'हिन्दी की अधिसंख्या लघुकथाएं एक-सी कथ्य-रूढ़ि में उलझ गई हैं और फार्मूलाबद्ध लेखन की शिकार हो गई हैं। अपेक्षित दृष्टि के अभाव में कई बार रचना में व्याप्त तनाव अंत में चटखारे में बदलकर रह जाता है। दंगे में दादा के मरने पर मुआवजा मिला, तो पोता कहता है- 'बापू, तुम कब मरोगे?' ऐसी दर्जनों लघुकथाएं एक दूसरे की नकल पर लिख डाली गयी हैं। पर इने पीछे क्या दृष्टि है? दृष्टि-विपन्नता अनिवार्य रूप से अभिव्यक्ित-क्षमता को भोथरा बना देती है। ऐसी रचनाओं में रेडीमेड यथार्थ मिलता है, दो मिनट-नूडल्ज़ की तरह 'चटखारेदार'। आशा है आप मेरा इशारा समझ गई होंगी । आभार
आ. रवी दादा आपकी टिप्प्णी से मुझे थोडी निराशा हुई है. यह कथानक या रचना किसी पुर्वलिखित कथ्य को लेकर नहीं रची गई हैं.मैने अभी साल-दो साल से ही इस विधा को लिखना आरंभ किया है और यह क्षण उस वक्त उभरा जब मेरे आफ़िस मे काम करने वाले प्यून ने उसके घर के पास हुए हादसे मे उस बच्चे व उसके परिवार के लिए एक दिन का भोजन मुहैया कराने के लिए मुझसे सहायता राशी की माँग की. द्रवित मन से उसकी सहायता के बाद ऐसा लगा की भुखा इंसान शायद एक दिन के भर पेट खाने मे ही अपना सुख ढूँढता है और ये रचना लिख गई, जिसे किसी चटखारे के साथ दो मिनट में लिखना और वो नकल के रुप मे सामने आए ऐसी विचार धारा मेरी नहीं है. इसके पिछे की मेरी दृष्टि यही थी कि सुख कि परिभाषा बहुत व्यापक है. कोई अथाह संपत्ति के बाद भी सुखी नही है तो कोई एक बार के भर पेट खाने में भी खुश है.
एक से कथानक पर जैसे वृद्धो का अपमान, यौनाचार, स्त्रीवाद आदि पर मैने अनेक रचनाएँ पढी है वे सब की सब नकल की श्रेणी में तो नहीं आती. इसमे आप से बहस करने का मेरा कतई उदेश्य नहीं हैं.
आप लेखन मे मुझसे वरिष्ठ है . करत करत अभ्यास मै भी अपनी रचना को परिष्कृत करने का प्रयास करुँगी जिससे उसमे उपजा भोथरा पन दूर कर सकू. सादर आभार
आदरणीय ताई, मेरा संकेत सिर्फ विषय के पुन: पुन: दोहराव की और है । एक ही प्रकार के कथानक व निश्चित कथ्य से नीरसता उपजती है । आपकी प्रतिभा पर मेरे समेत मंच पर किसी काे कोई संदेह नहीं है । मेरा आशय किसी भी प्रकार से आपको दुख पहुंचाना कदापि नहीं है, किसी भी प्रकार से आपको आहत किया उसके लिए करबद्ध क्षमा प्रार्थी हूं ।
अरे! नहीं रवी दादा करबद्ध क्षमा जैसी कोई बात ही नही हैं. कथानक के दोहराव की बात पर मैं आपसे सहमत हूँ किंतु उस दोहराव से बचने के लिए ही यहाँ मैने बालमन की मनोस्थिती दर्शाने की कोशिश की थी किंतु शायद असफ़ल रहीं. आप मुझे बडी बहन का दर्जा देते है फिर माफ़ी वाली बात ना करे. मुझे तो दुख इस बात का नहीं कि आपने दोहराव की बात उठाई बल्कि दुखी इस बात से हूँ कि अंतिम २-३ वाक्यों पर काम करने के लिए आप से सुझाव अपेक्षित था ताकि अंत दृढ रुप से सामने आ सके. आप के विचारो की अहमियत मैं समझती हूँ.
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