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आओ मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए
चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए
आज फिर नाज़ हो आया है ख़ुदी पे मुझको
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए
खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए
आज के दिन सभी हारे जो लड़े हैं मुझसे
आज खुद से भी जरा आँख मिलाई जाए
ढूँढने के लिए भगवान तो निकलें बाहर
आओ मंदिर से कोई चीज चुराई जाए
सात रंगों से ही बनती है रौशनी ‘सज्जन’
आओ मिल जुल के कोई बात बनाई जाए
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए/-
वाह-वाह.. क्या बात है धर्मेन्द्र सर! जाने क्या नाता है ग़ज़ल का 'मयखाने' से.. पूरा का पूरा शेर ही झूम उठता है.
/खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए/- निहायत ही मासूम ख़याल.
इस मुकम्मल ग़ज़ल के लिए ढेरों मुबारकबाद कबूल फरमाएँ.
धर्मेन्द्र भाई आदरणीय सम्पादक जी ने बहुत खूबसूरती से आपकी ग़ज़ल को विश्लेषित किया है, सभी के सभी शे'र उम्द्दा है , यदि मुझ से कोई तीन शे'र कोट करने को कहा जाय तो ...................
सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो मतला , मकता और ................
खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए
इस शे'र को कोट करना चाहूँगा , दाद कुबूल करे इस खुबसूरत प्रस्तुति पर |
धर्मेन्द्र भाईसाहब, आपकी ग़ज़ल ने मन को सुकून अता किया है.
क्या अंदाज़ है, क्या आवाहन है - आओ मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
और उसपर ताक़त ये कि लाश को भी कंधों पे उठाना. वाह-वाह...
//खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए// .... इस अशआर पर मेरा आदाब कुबूल करें. बहुत आत्मीय से भाव बन पड़े हैं..
//सात रंगों से ही बनती है रौशनी ‘सज्जन’
आओ मिल जुल के कोई बात बनाई जाए//.. ..... इस तरही को इस कमाल का आदाब.
इतने अच्छे शेरों के लिये मेरा हार्दिक धन्यवाद व शुभकामनाएँ.
मतला बेहतरीन और खोजते खोजते मिल जाये सुहाना बचपन लाज़वाब।
धर्मेन्द्र जी को मुबारकबाद।
आओ मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए
चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए
दिल को छूनेवाली ग़ज़ल. बधाई. मैंने पहले शे'र को यूँ पढ़ा तो एक नया रंग दिखा:
जिन्दा मुर्दों को जरा राह दिखाई जाए
आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए
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आज कंधों पे कोई लाश उठाई जाए//
बहुत खूबसूरत मतला ओर बिलकुल नवीन विचार !
//चाँद के दिल में जरा आग लगाई जाए
आओ सूरज से कोई रात बचाई जाए//
वाह वाह वाह - बहुत खूब !!
//आज फिर नाज़ हो आया है ख़ुदी पे मुझको
आज मयखाने में फिर रात बिताई जाए //
क्या कहने हैं धर्मेन्द्र भाई - ये अंदाज़ भी पसंद आया आपका !
//खोजते खोजते मिल जाए सुहाना बचपन
आज बहनों की कोई चीज छुपाई जाए //
अय हय हय हय - कहाँ से लाते हैं इतनी ज़बरदस्त कल्पना भाई ? दिल जीत लिया इस शे'र ने, उंगली पकड़ कर कहीं पीछे बहुत पीछे ले गया अतीत में ! ये हासिल-ए-ग़ज़ल शेअर है - वाह वाह वाह ! शत शत नमन है आपकी लेखनी को !
//आज के दिन सभी हारे जो लड़े हैं मुझसे
आज खुद से भी जरा आँख मिलाई जाए //
भाई दोनों मिसरों में सामंजस्य नहीं बन पा रहा - इस लिए बात साफ़ नहीं हो रही !
//ढूँढने के लिए भगवान तो निकलें बाहर
आओ मंदिर से कोई चीज चुराई जाए //
क्या खुली चुनौती दे दी सीधे भगवान को ही - भई वाह ! धन्य है आपकी यह कल्पना !
//सात रंगों से ही बनती है रौशनी ‘सज्जन’
आओ मिल जुल के कोई बात बनाई जाए//
बहुत सुन्दर मक्ता कहा है धर्मेन्द्र भाई - गिरह भी उम्दा लगी है ! इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बधाई देता हूँ आपको !