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आदरणीया कांता जी, आप तो लघुकथा की मूल आत्मा तक पहुँच गयी हैं, बहुत बहुत आभार.
सराहना हेतु आभार आदरणीया रश्मि तारिका जी.
बरगद का प्रतीक लेकर सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी बागी जी
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी.
साथी
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पूरा शहर धू धू कर जल रहा थाI दोनों तरफ के दंगाईयोँ के धार्मिक नारे वातावरण में ज़हर घोल रहे थेI ढूँढ ढूँढ कर एक दुसरे की
संपत्तियां जलाई जा रही थीं, निर्मम हत्याएँ की जा रही थींI दंगाईयोँ का एक दल बस्ती के बाहर बने एक घर की तरफ बढ़ ही रहा था कि दूसरा टोला भी वहां आ पहुंचाI कोई नहीं जानता था कि घर किसका था, इसलिए दोनों तरफ के दंगाइयों ने उसे घेर लियाI दीवार के ऊपर से झाँक कर देखा तो सभी सकते में आ गए। अंदर एक विचित्र ही नज़ारा था; आँगन में केवल एक युवा दम्पत्ति था, उनमे से एक नमाज़ पढ़ने में व्यस्त था तो दूसरा आरती में। जिसे देखकर अचानक नारों की जगह ख़ामोशी ने ले लीI दोनों दल किंकर्तव्यविमूढ़ एक दूसरे की तरफ देखने लगे, हाथ में पकड़ी मशालों की लौ भी शर्मिंदा हो उठी। उनकी यह हालत देख कर एक वरिष्ठ दंगाई आगे आया और दोनों दलोँ के मुखियों के कंधे पर हाथ रख कर बोला:
"यह हमारी इज्जत का सवाल है, इसलिए इस गंभीर समस्या का समाधान हमें मिलजुल कर ही करना होगा।"
"मगर कैसे?" सैकड़ों प्रश्नचिन्ह दंगाईयों की आँखों में उभर आए।
"इसका एक ही हल है, एक दल तेल छिड़केगा और दूसरा दल आग लगाएगा।"
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(मौलिक और प्रकाशित)
रचना पसंद करने हेतु दिल से शुक्रिया भाई सुनील वर्मा जीI
आप बिलकुल सही समझे हैं भाई उस्मानी जी, वैसे दंगाईयोँ का कोई मज़हब होता है सिवाय दंगे के? आपको रचना पसंद आई यह जानकर संतोष हुआI
गजब की लघुकथा प्रदत्त विषय पर आ योगराज सर, अंत ऐसा कि आह निकल गयी| वास्तव में इन दंगाईयों का एक ही मक़सद होता है, जानोमाल का नुक्सान करना| बहुत बहुत बधाई इस मार्मिक और झकझोर देने वाली लघुकथा के लिए
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