आदरणीय साथिओ,
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ऐसी रचना को देखकर/पढ़कर पंजाबी के एक प्रसिद्ध आलोचक कहा करते थे कि "बहुत रूह से लिखा है". मुझे भी यह लघुकथा पढ़ते हुए कुछ वैसा ही आभास हुआ. यह इंसानी फितरत है जो जलती धूप में साया ढूंढती ही है, यही इस कथा का केन्द्रीय भाव है. लघुकथा हालाकि बेहद उम्दा और प्रदत्त विषयानुकूल है जिस हेतु बधाई प्रेषित है. किन्तु रूह से लिखी होने के बावजूद भी अभी कुछेक स्थानों पर संपादन की गुंजाइश है:
//उसकी हृदय भूमि मरुस्थल की तरह जगह-जगह से न जाने कब तक दरकी रहती यदि उस पर उसके बॉस के मधुर व्यवहार की स्नेहिल बौछार न पड़ती ।पुलिस में भर्ती पति का कठोर व्यवहार ,तानाशाही रवैया , अकारण की टोका-टाकी , आये दिन रात की ड्यूटी एक अदृश्य दीवार की तरह पति-पत्नी के रिश्ते के बीच आ खड़ी थी ।ऐसे में ऑफिस की दीवारें ही थीं जो उसे सहज़ रखतीं , अपनी लगतीं ।हालाँकि बॉस ने उससे कभी कोई ऐसी बात नहीं की जिससे ये सिद्ध होता कि वह भी उसके प्रति विशेष भाव रखते हैं ।फिर भी वह कब अपने बॉस की ओर खिंचती चली गई उसे स्वयं पता नहीं चला । कई बार उसका दिल चाहता वह बॉस के साथ ढेर सारी बातें करे , उनके साथ घूमने जाये , अपने अहसासों को कहकर नहीं तो लिखकर उन तक पहुँचाये लेकिन उसके संस्कार उसे समस्त भाव भीतर ही जज़्ब करने को मजबूर कर देते ।//
1. इस पैरे को सम्पादित कर चुस्त किया जाना चाहिए.
2. मरुस्थल के साथ दरकना शब्द सही नहीं.
3. अंतिम पंक्ति में "अनकही ऑंखें" पर भी पुन: विचार किया जाए.
हार्दिक बधाई आदरणीय शशि जी। लाज़वाब लघुकथा।
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