आदरणीय साथिओ,
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समझ--
जैसे ही वह दरवाजे पर पहुँचा, झबरा आदतन इठलाते हुए उसके ऊपर चढ़ने लगा| उसने एक लात झबरा को लगाई और दरवाजे पर रखी खटिया पर बैठ गया| धूप कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी और ऊपर से उमस, पसीना उसके कानों के पास से बहता हुआ बनियान को भिगो रहा था| मलकिन खेत पर काम करने गयी थी और बिटिया स्कूल, पानी भी देने वाला कोई नहीं था| लेकिन इन सब से बेखबर वह क्रोध और बेबसी के भंवर में डूब उतरा रहा था|
आज एक बार तो उसकी इच्छा हुई थी कि भगेलू का गला ही दबा दे, कितनी बेहयाई से उसने कहा था "अरे मलकिन को कभी घर पर भी काम करने भेज दिया करो"|
"हरामी" कहकर एक बार उसने ख़खार कर थूक दिया| अब कहाँ जाये पैसे का इंतजाम करने, बिटिया के स्कूल का फीस भरनी ही थी हर हाल में| मलकिन ने भी कह रखा था और उसकी भी दिल की इच्छा थी कि बिटिया खूब पढे और आगे बढ़े|
तभी उसे महसूस हुआ कि उसके पैरों पर कुछ है और उसने नीचे देखा| झबरा चुपचाप उसके पंजे पर अपना सर रखकर लेटा हुआ था| उसके हिलते ही झबरा ने अपना सर उठाया और उसकी तरफ देखा, नज़र में आए फर्क को पहचानते ही झबरा ने उसके कंधे तक अपने पैर फैला दिये|
उसके हाथ अपने आप ही झबरा को सहलाने लगे और उसका गुस्सा और बेबसी बहते पसीने के साथ मिलकर बहने लगे|
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मौलिक एवम अप्रकाशित
बहुत बहुत आभार आ मोहतरम समर कबीर साहब
बहुत बहुत आभार आ बरखा शुक्ल जी
परेशानी के इस आलममें भी इंसान सुख की तलाश कैसे कर लेता है यह इस लघुकथा से बखूबी उभर कर सामने आया है भाई विनय कुमार सिंह जी. लघुकथा बेहद सुंदर हुई है जिस हेतु आपको ढेर सारी बधाई.
बहुत बहुत आभार आ योगराज प्रभाकर सर, पालतू जानवर छोटे छोटे सुखों के बहुत बड़े वाहक होते हैं| सराहना हेतु आभार आपका
बहुत बहुत आभार आ मोहम्मद आरिफ़ साहब
बहुत बहुत आभार आ नीता कसार जी
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