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(आधार बह्र ए मेरे)

रात चाँदनी और ये तारे
नहीं सुहाते बिना तुम्हारे-2


साथ रहो तुम तब है होली
तुम्ही नहीं जो फिर तो हो ली
तुमसे जीवन में सारे रंग
तुम बिन जीवन ही है बे रंग

गम का दरिया तर जाता है
तुम रहते जब साथ हमारे।

झूम-झूम कर आता सावन
लेकिन प्यासा तरसे जीवन
विरह काल में बूंदें गिर कर
चलें जलाती मेरा तन-मन

साथ तुम्हारा नहीं अगर तो
सभी फुहारें हैं अंगारे।

जले जेठ-सा जाड़ा तुम बिन
समय कटे हर क्षण को गिन-गिन
तुम बिन नौरस भी पतझड़ है
कटे रात-सा मेरा हर दिन

नहीं उजाले चुँधियातें अब
तुम बिन लगते ये अँधियारे।

परख लिया अब तो आ जाओ
विरह अगन में नहीं जलाओ
पावन प्रेम तुम्हारा इस पर
वारा सबकुछ मान भी जाओ

तुम से है हर दिन मेरा बस
तुमसे सुख-दुख के पल सारे।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on June 6, 2017 at 10:39am
आदरणीय महेंद्र जी,उत्सावर्धन के लिए तहेदिल शुक्रिया,सादर
Comment by Mahendra Kumar on June 5, 2017 at 8:12pm

बढ़िया विरह गीत है आ. सतविन्द्र जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on June 5, 2017 at 5:52pm
आदरणीय मोह्ह्मद आरिफ जी,सादर वन्दन!अनुमोदन एवं प्रोत्साहन के लिए सादर आभार
Comment by Mohammed Arif on June 5, 2017 at 4:48pm
आदरणीय सतविंद्र जी आदाब, बहुत अच्छी विरह वेदना स्फुटित हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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