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aap sabhi ki sallaah hetu dhanyawaad
us sher me siraf dhokha karaya hai likhna tha par shayad jaldi type karrte huwe galti ho gayi khsama prarthi hun......
आदरणीय संजय दानी साहिब की ग़ज़ल
ज़रा सी ज़िद ने इस आंगन का बंटवारा कराया है,
लहू के रिश्तों के चौपाल को गूंगा कराया है।
वो ख़ुद तो बेवफ़ाई के मज़ारों में भटकती है,
मगर मुझसे वफ़ा के महलों का वादा कराया है।
किनारों ने सितम तो ढाये,अहसां भी किया लेकिन,
समन्दर की शराफ़त से मेरा रिश्ता कराया है।
उन्हें मैं भूलना तो चाहता पर,वस्ल को आतुर
इरादों ने कफ़न की याद को ताज़ा कराया है।
सुनों इस मुल्क से मेरी सियासत हिल नहीं सकती,
यहां हर साल मैंने इक न इक दंगा काराया है।
वफ़ा के सख़्त ईटों से बना घर भी ढहेगा कल,
सितमगर बेवफ़ा ने नींव में गढ्ढा कराया है।
कि जग को सब्र के गुल महंगे लगते इसलिये यारो,
हवस के गुल मिला सामाने-दिल सस्ता कराया है।
मुहब्बत भी इबादत की ज़मीं से कम नहीं ये कह
हमेशा उसने अपने पैरों का सजदा कराया है।
चराग़ों की ज़मानत दानी ने ली ,ऐसा कह तुमने,
हवाओं की अदालत से मेरा झगड़ा कराया है।
//वफ़ा के सख़्त ईटों से बना घर भी ढहेगा कल,
सितमगर बेवफ़ा ने नींव में गढ्ढा कराया है।//
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