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सिर्फ विभीषण बनता है- ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2

अधरों पर झूठी मुस्कान, जिसमें भरी कुटिलता है।
सच तो ये है हे भैय्या जी, खद्दर उसी पे जँचता है।।

जाग रहे लोगों से भारत वासी का कब हृदय मिला।
जो संसद में ही सोता हो, वो ही असली नेता है।।

विष का घूँट तुम्हारी ख़ातिर, जो पी ले वो पागल है।
बीच सदन पव्वा ले बैठे, मान उसी का होता है।।

युग बदला परिभाषा बदली, गद्दारी क्या होती है?
भारत का आदर्श आज कल, सिर्फ विभीषण बनता है।।

साक्षरता के दर के आंकड़े, पर मत जाओ भाई जी।
पढ़ी लिखी है लेकिन चलती, भेंड़ चाल ये जनता है।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 17, 2016 at 3:59pm
आदरणीय गिरिराज सर सादर आभार , प्रणाम

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 10, 2016 at 9:41pm

आदरणीय पंकज भाई , अच्छी ग़ज़ल हुई है , हार्दिक बधाई आपको

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 9, 2016 at 1:32pm
आदरणीय रवि सर सादर आभार
Comment by Ravi Shukla on August 9, 2016 at 11:26am

आदरणीय पंकज जी बढि़या व्‍यंग किया हैै आपने आज कल की व्‍यवस्‍था पर बधाई । 

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