For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-5 में स्वीकृत सभी रचनाएँ

(१). श्री मिथिलेश वामनकर जी 

निर्विकल्प 

“लक्ष्मी तुम काम में बेईमानी करोगी तो नर्क में जाओगी।” मैंने लक्ष्मी से चुहल की।
“मैडमजी, जो है सो एही लोक में है। परलोक में कोई सुरग-नरक नहीं है।”
“यानी तुम परलोक को नहीं मानती?”
“मानती हूँ न मैडमजी, उहाँ भगवान् रहते है लेकिन उहाँ बैठकर सुरग-नरक का बंदरबाट नहीं करते। वो इत्ते सक्छम है कि उहीँ से इस लोक को चलाते है।”
“यानी स्वर्ग नरक सब इसी लोक में है।”
“जी मैडमजी, ये इत्ता बड़ा घर, बड़ी-बड़ी गाड़ी, साहबजी की इत्ती बड़ी नौकरी, इत्ता बढ़िया खाना-पीना, यही तो सुरग है।”
लक्ष्मी की बात से मैंने बहुत गौरवान्वित महसूस किया। अपने अहं तुष्टि के लिए जानबूझकर मैंने पूछा-
“अच्छा ये स्वर्ग है तो फिर नरक?”
“ये गरीबी है नरक, मैडमजी,  नरक में तो हम रहते है। भरपेट खाने को नहीं, ढंग का कपड़ा नहीं। ऊपर से हम औरत जात। मर्द पैरों की जूती समझता है, इज्जत नहीं करता। शराब पीकर आये तो मारता है, न पीकर आये तो जबरदस्ती। पैसा नहीं दो तो बेचने को तैयार। पूरा दिन बाहर काम करते हुए मरों और रात को......। अब ये नरक नहीं तो क्या है मैडमजी?”
लक्ष्मी की बात सुनकर अचानक इनके हाथ उठाने से लेकर, इस बंगले को खरीदने के लिए पापा से हेल्प मांगने को कहना और पार्टी में बॉस को कम्पनी देने के लिए कहना, जैसी कितनी ही बातें मेरे दिमाग में कौंध गई। लेकिन न चाहते हुए भी मैंने लक्ष्मी के स्वर्ग की परिभाषा को स्वीकार कर लिया।


************************************
(२). योगराज प्रभाकर 
 वर्ण व्यवस्था (लघुकथा) 
    .
"बाहर निकाल अपने बेटे को पंडित ! देखते हैं कितनी गर्मी है उसके खून में. आज छोड़ेंगे नही उसे।  हमारे गाँव में आकर दंगा फ़साद करने का मज़ा चखाएंगे उसको आज। "
हाथों में  तलवार लाठियाँ पकड़े हुए पड़ोसी गाँव के नौजवानों की उग्र भीड़ बीच चौराहे खड़ी ललकार रही थी। 
"आज हम ज़िंदा नही छोड़ेंगे उसे।" 
इन आवाज़ों को सुनकर कर किसी अनिष्ट की आशंका में धीरे धीरे चारों बस्तियों के घरों के दरवासे बंद हो गये,
"है कोई माई का लाल जो आज पंडित के बेटे को बचा सके?"
यह ललकार सुनकर अब बंद दरवाज़ों के पीछे की रोशनियाँ भी बुझा डी गईं। 
तभी पिछली कामगार बस्ती से दो साए प्रकट हुए, हाथ में छड़ी पकड़े छज्जू धोबी और दुर्गा मेहरतरानी का बेटा जग्गू.
"अरे क्या बात हुई बेटा, काहे इतना भड़क रहे हो? छज्जू ने नौजवान टोले ने नेता के पास पहुचते हुया बड़े प्रेम से पूछा। 
"तुम रास्ते से हट जयो काका, आज हम उस हरामी के पिल्ले को नही छोड़ेंगे।?"
"अरे काका भी कहते हो, और ...., अरे कहीं तुम चक्की वाले नाथ जी के बेटे तो नही?"
"नही, मैं मंडी वाले भोला शंकर जी का...." 
"ओह.... भोला शंकर जी? अरे कितने दानवीर और दानी सज्जन पुरुष थे तुम्हारे पिता जी। वो तो मुझे हमेशा बड़े भाई की तरह माना करते थे । लेकिन ऐसे दयालु इंसान के बेटे में इतना गुस्सा?"
"तो क्या कोई भी हमारे गाँव में आकर ऊधम मचा जाए और हम उसको सूखा छोड़ दें, उसको सजा देकर ही यहाँ से जायेंगे ?" टोले का नेता बहुत भड़का हुआ था I  
"नहीं नहीं बेटा, उसको सज़ा मिलेगी. मैं कल भरी पंचायत में उसकी खबर लूँगा। अगर ज़रूरत पड़ी तो उसका हुक्का पानी भी बंद करवा देंगे I 
"......................."
"देखो  रात बहुत हो गयी है, अब तुम लोग भी अपने अपने घर जायो। " छज्जू ने उसके कंधे तो थपथपाते हुए कहा.
 "नही, हम उसको सबक सिखाए बिना नही जाएँगे।" उग्र भीड़ शांत होने का नाम नहीं ले रही थी 
"अगर हमारे काका की बात के बाद भी तुम लोग अपनी ज़िद पर आड़े हुए हो, तो हम भी मुकाबला करने को तयार हैं, हम ने भी चूड़ियाँ नहीं पहन रखी हैं I" 
जग्गू की यह ललकार सुनकर से काई घरों की बुझी हुई बत्तियाँ फिर से जल उठीं। 
"शांत बेटा शांत, देखो तीज त्योहार के दिन हैं। मन में नफ़रत मत पालो I"
दोनो नौजवानो को पीछे करते हुए छज्जू ने कहा। "देखो अगर फिर भी किसी को गुस्सा है, तो मुझे दे लो सज़ा जो देनी हो।"
छज्जू काका की इस बात ने असर दिखाया।  
"हम जाते हैं काका, तुम्हारे कहने पर इस बार तो माफ़ कर देते हैं। लेकिन दोबारा ऐसी हरकत की तो हम से बुरा कोई नही होगा."
उग्र नौजवानों का टोला वापिस जा रहा था, काका की दलित बस्ती के काफी घरों में रौशनी दोबारा लौट आई थी। 
बड़ी बस्तियों के बंद दरवाज़ों के पीछे काका की बुद्धिमत्ता और जग्गू के साहस को लेकर कानाफूसियाँ शुरू हो गईं थीं I 
"देखा आपने पंडित जी, ये क्या हो रहा है ?" 
"होना क्या है ठाकुर साहिब ! घोर कलयुग आ गया है, वर्ण व्यवस्था की धज्जियाँ उडाई जा रहीं हैं । 
***********************************************
(३) सुश्री सीमा सिंह जी 
अन्नपूर्णा
    .
सुबह से ही घर के नौकरों को निर्देश दे दे कर सब कुछ व्यवस्थित करने में जुटी थी मिसेज़ रॉय। एकलौती बेटी को लड़के वाले देखने आ रहे थे। पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद रसोईघर की ओर बढ़ गईं, यही वह स्थान था जो श्रीमती रॉय को कतई पसंद न था, परन्तु आज अति विशिष्ठ अतिथि आ रहे थे तो सारी व्यवस्थाएं चाक-चौबंद कर देना चाहती थी I उनकी बेटी सुन्दर तो थी, इसी साल कंप्यूटर इन्जीनियर भी बन गई थी I तभी तो इतने बड़े घर से रिश्ता आ रहा था । तभी मेहमानों के आने की आहट हुई, लड़के के साथ उसके माता-पिता, चाचा-चाची, बहन-बहनोई और इन सबके अलावा दादी जो अपने पोते की भावी वधु देखने विशेष तौर पर आईं थी।
हलके फ़िरोजी रंग की शिफॉन की साड़ी में लिपटी लड़की ने कक्ष में प्रवेश किया I सबकी नज़रें उस पर ही केन्द्रित हो गई थीं। जिसे देखकर श्रीमती रॉय के चेहरे पर एक विजयी मुस्कान उभर आई। बेटी को सबसे मिलवाया, और उसके एक एक गुण की विवेचना करनें लग गईं I
“मेरी अन्नू कम्पूटर इंजीनियर है, वो भी गोल्ड मैडलिस्ट I” श्रीमती रॉय ने गर्व से बताया I
"ये जो आप पेंटिंग्स देख रहीं हैं न? मेरी अन्नू ने दसवीं कक्षा से ही बनानी शुरू कर दी थीं।” लड़के की माँ का ध्यान पेंटिंग्स पर देख श्रीमती रॉय ने कहा. “दो बार प्रदर्शनी भी लग चुकी है अन्नू की I”
“अरे ये अन्नू क्या नाम हुआ?” दादी ने पूछ ही लिया.
“माफ कीजियेगा, नाम तो अन्नपूर्णा है इसका बस प्यार से अन्नू बुलाती हूँ मैं I” सकपकाते हुए श्रीमती रॉय ने कहा।
“अन्नपूर्णा ?? बहुत ही सुन्दर नाम है I अच्छा ये तो बताओ बेटी, खाने में क्या पसंद है ?”
“सब कुछ खाती है मेरी बेटी I" उत्तर श्रीमती रॉय ने दिया
जवाब सुनकर दादी हँस पड़ी,
“मैं खाने की नहीं, पकाने के बारे में पूछ रहीं हूँ I खाना तो बनाना आता हैं न ? देखो हमारे मुन्ना को घर के खाने का बहुत शौक़ है.”
“दादी माँ! खाना बनाना तो नहीं सिखाया मैंने.” श्रीमती रॉय का चेहरा पीला पड़ गया था,
“अरे खाना बनाना नहीं सिखाया? मगर क्यों?" दादी के स्वर में आश्चर्य था I
"नहीं I क्योंकि इतना पढ़ लिखकर भी ..............?"
बात को बीच में ही काटकर दादी माँ ने मिसेज़ रॉय के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा: "वो सब ठीक है, लेकिन अन्नपूर्णा की परिभाषा तो मत बदलो बेटी।”
**********************************************************
( ४). सुश्री रीता गुप्ता जी 
 परिभाषा

रीमा की अभी ससुराल में सबके साथ सामंजस्य बैठाने की कवायद चल ही रही थी . आज उसकी ननद के रिश्ते के लिए लड़केवाले आयें थे .लड़की दिखाने व् खाने पीने के कार्यक्रम के बाद अब मुद्दे पर बात हो रही थी कि तभी रीमा स्वीट डिश की ट्रे लिए बैठक में घुसी .उसके ससुर जी बोल रहें थें ,
“हम तो बिलकुल मार्डन विचारों वालें हैं ,ना दहेज लेतें हैं ना देते हैं .मेरी बहू से पूछ लीजिये,अभी दो महीने पहले ही तो शादी हुई है “
“रीमा, बताओ इन्हें “
लड़के के पिता लगभग शीशे में उतर चुके थे कि उनकी नज़र पलकें झुकाए रसमलाई परोसती बहू पर चली गयी जिसके सावन-भादो बनें नैन बहुत कुछ कह रहें थें . मेजबान की मार्डन विचारों वाली परिभाषा के  किताब के सारे पन्ने उन दो झुकी नयनों ने सुना दिया था .     नमकीन हो चली रसमलाई का प्लेट रखते हुए मेहमान ने कहा कि,
“हम भी दहेज़ लोभियों से  सख्त नफरत करतें हैं, अपने विचार हम फोन पर बता देंगें “
कह मेहमान ने झट उस झूठे मक्कार माहौल से निजात पा लिया ,पर
“ क्यों री,कंगले की बेटी , तूने कुछ कहा क्या उन्हें .........”
    .......... पीठ फेरते ही सुनी ये बात देर तक छद्म परिभाषाओं की धज्जियां उड़ाती रही .
*********************************************
(५). सुश्री कांता रॉय जी 
भ्रम /परिभाषा, 

"आपके सामने वाले घर में सजायाफ्ता मुजरिम रहता है । " पडोसन के मुंह से सुनी बात पैनी -धार सी दिल में उतर गई । गृहप्रवेश की खुशी काफूर हो गई थी ।
" चाची , ओ चाची , .... जल्दी दौड़ों, चाचा को कुछ हो गया है ।" बाहर से आवाज आई ।
" क्या हुआ ? " रसोई से सीधे वह बाहर की ओर दौड़ पडीं ।
" ये जमीन पर कैसे ..... उठो ना जी, ... क्या हो गया तुम्हें ...? कोई तो डाॅक्टर बुलाओ जल्दी से ! " उनको जमीन पर औंधे पड़े देख वह काँप उठी ।
पल भर में ही वो अनाथ सी कलप उठी थी कि एक अनजाने ने अपनी गाड़ी में निष्प्राण से शरीर को जमीन से उठा कर लिटा दिया । संग उसे भी बैठने को कह गाड़ी अस्पताल की ओर दौडा दी ।
कहने को पूरा परिवार लेकिन ऐसे में कोई आगे ना बढ़ा । गला रूँध रहा था बार - बार । " भाई साहब, आप कहाँ ... कौन सा अस्पताल लिए जा रहे है ? इस वक्त तो मेरे पास रूपये का इंतजाम भी ...." चिंता से निर्बल मन अब और अधीर हो उठा ।
" अरे , कैसी बात करती है ! आप भाई साहब पर ध्यान दें ! हम हैं ना ...सब देख लेंगे ! " सुनते ही कलेजा गड्डमड्ड होने लगा । उसके अपनेपन से भरे बोल ने उसकी लडखडाहट को जैसे सम्बल दे गये ।
" चिंता की कोई बात नहीं , अब ठीक है मरीज । वक्त पर उपचार मिलना कारगर सिद्ध हुआ । ," जैसे ही डाॅक्टर नें कहा मन में होश - भरोस हो आया ।
"भाईसाहब , आप अनजान होकर मेरे पति की जान बचाये है । आप कौन है ...आपका घर कहाँ है ? " उसे वो देवदूत के समान लग रहे थे ।
" अरे बहन जी , अनजान कहाँ ....मै पडोसी हूँ । आपके सामने वाले घर में ही तो रहता हूँ ! "
" कौन ...? सजायाफ्ता मुजरिम .....! "
**************************************
(६). डॉ विजय शंकर जी 
राजनीति की परिभाषा
" सर , मुझे काफी समय हो गया आपके साथ रहते हुए। आप अपने आदर्शों और सिद्धांतों के लिए जाने जाते हैं. आप सदैव कहते भी हैं कि आप सिद्धांतों की राजनीति करते हैं।" उनकें आगे से काॅफ़ी का खाली प्याला उठाते हुए उसने अकेले में आज उनसे पूछ ही लिया ," पर सर वो कौन से सिद्धांत हैं जिनकीं आप हमेशा दुहाई देते हैं , उनकीं क्या परिभाषा है ? मेरी तो कभी समझ नहीं आते।"
वो सोफे से उठते हुए बोले , " अवश्य , अवश्य तुम्हें जानना चाहिए , तुम मेरे कितने ख़ास , कितने करीबी हो। मेरे राजनैतिक उत्तराधिकारी हो। राजनैतिक सिद्धांत वो होते हैं जो कभी परिभाषित नहीं होते। कभी परिभाषित नहीं किये जाते। जब जैसा अवसर आये , वैसा कह लो।..... कहो , समय की यही मांग है , जनता यही चाहती है। यही मैं कहता हूँ , यही मेरे कहे का अर्थ है , "
अपने शयन- कक्ष में जाते-जाते रुक कर बोले , " …… और , हाँ , सही क्या है , राजनीति में यह किसी को नहीं पता होता , पर गलत क्या है , यह हर एक को पता होता है। "
" वो क्या है ? सर ,"
" बस , यही तो ज्ञान की बात है , राजनीति में कहीं , कुछ भी , कभी भी , तब तलक गलत नहीं होता जब तलक खुद तुम्हें उससे कोई नुक्सान नहीं होता।"
ये कहते हुए वे शयन - कक्ष में चले गए।
**************************************************
 (७). सुश्री डॉ नीरज शर्मा जी 
नैतिकता

आज रमेश बहुत गुस्से में घर से निकला । रास्ते भर सोचता रहा कि बस अब बहुत हो गया, आज तो आर या पार करके ही लौटूंगा। अचानक पिता की मौत का समाचार मिलते ही उसे भारत आना पड़ा, छुट्टियां भी कम ही थीं। पिता की मौत के बाद कई काम निपटाने थे। उनके मृत्यु प्रमाणपत्र के बिना कई काम अधर में लटके पड़े थे। क्लर्क उसे रोज़ बहाने बनाकर कभी कोई तो कभी कोई कागज़ लाने को कह कर टरका देता। समय कम था अतः उसकी चिंता बढ़ती ही जा रही थी व साथ साथ गुस्सा भी।यही सब सोचता हुआ वह दफ्तर पहुंच गया।
सामने ही क्लर्क को देखकर, कहीं गुस्से से काम न बिगड़ जाए , यह सोच कर स्वयं को संयत करते हुए उसने दफ्तर में प्रवेश किया।
"आज तो मेरा काम हो जाएगा न बड़े बाबू?"
"आपका काम थोड़ा टेढ़ा है, इंकवायरी भी तो करनी पड़ती है, उसमें समय लगता है"-बड़े बाबू ने समझाया।
"समय ही तो नहीं है मेरे पास, मुझे अमेरिका वापस लौटना है।"
सामने बड़ी मुर्गी देखकर होठों पर जीभ फिराते हुए बाबू ने सलाह दी -"देखिए आप चाहेंगे तो काम जल्दी भी हो जाएगा, पर आपको कुछ सुविधा शुल्क का प्रबंध करना होगा।"
"सुविधा शुल्क?"
"जी ! यही कुछ चाय पानी के लिए"
"वो तो ठीक है , पर इस बात की क्या गारंटी कि इसके बाद मेरा काम हो ही जाएगा।"
"अरे जनाब !! कैसी बात कर रहे हैं ? आखिर नैतिकता भी कोई चीज़ है कि नहीं।"
************************************************
(८). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
लघुकथा- परिभाषाऍ

“ नेताजी ! यह समझ में नहीं आया. आप दिन में इन्हीं नेताजी को जनता के सामने जम कर कोस रहे थे और अभी इन की लड़की की शादी में ?”
“ बढ़चढ़ कर हिस्से ले रहे हैं. यही ना, “ नेताजी मुस्काए, “ भाई वे राजनीति मतभेद थे. यहाँ सामाजिक समानता का मामला है. इसलिए हम दोनों जगह सही हैं . एक जगह पार्टी के साथ न्याय कर रहे थे. दूसरी जगह सामाजिक समरसता व भाईचारा निभा रहे थे.”
“ मगर उस दिन आप ने उस छुट भैया नेताजी की सुपारी दी थी. वह आप का कौन सा न्याय सिद्धांत था ?”
“ मेरे शर्गिर्द ! मेरे साथ रहोगे तो सब राजनीति सीख जाओगे. वह हमारा मत्स्य न्याय सिद्धांत था. बड़ी मछली हमेशा..” कहते हुए नेताजी मुस्काए.
“ आप ने अपने आका. यानि उन नेताजी को ..”
“ धोखे से मरवा दिया था. यह हमारा बगुला न्याय था,” कहते हुए नेताजी कुटिल मुस्कान बिखेरने लगे.
“ वाह नेताजी ! आप धन्य है. मगर एक बात और बताइए , आप विधानसभा में सब से ज्यादा क्रोधित दिख रहे थे. वहां आप ने जम कर कुर्सियां फेंकी थी. लोकतंत्र के मंदिर में यह सब. यह समझ में नहीं आया आदरणीय  नेताजी ? ”
“ यह भी सही था मेरे शर्गिर्द . प्रजातंत्र में यही विरोध का तरीका है. यह भी जंगलन्याय है. हम सब यही न्याय सिद्धांत का पालन करते हैं .” सुनते ही शर्गिर्द नेताजी के पाँव में गिर गया, “ धन्य हैं नेताजी आप और आप का न्याय सिद्धांत. जो चारों और फ़ैल रहा हैं.  ”
**********************************************

(९).श्री पंकज जोशी जी 
लघुकथा मुजाहिद
"नावेद ! आपके खिलाफ काफी शिकायतें आ रही हैं । हाईकमान आपसे बेहद नाराज है I इसलिए आपको संगठन के लिये वफादारी साबित करने का आखिरी मौका दिया जा रहा है। यह लीजिये लिफाफा और अपना फ़र्ज़ पूरा कीजिये।"
"जी जनाब I" कहते हुए उसने अपने हाथ में लिफाफा पकड़ा ।
लिफ़ाफ़े को जैसे ही उसने उसने खोला तो उसके पैरों तले जमीन ही सरक चुकी थी I 
"याद रहे, यह आखिरी मौका है आपके लिये I" बड़े कमांडर ने धमकी भरे स्वर में कहा I  
नावेद अपनी जैकेट पहन और कमर में पिस्तौल खोंसते हुए तेजी से कमरे के बाहर निकल कर घर की तरफ चल पड़ा। 
घर खाली था, उसने कागज़ पर कुछ लिखा और पास पड़ी किताब के अंदर दबा कर कब्रिस्तान की निकल ही रहा था कि सामने उस एरिया के कमांडर को देख कर एकदम ठिठका ! 
"यह क्या किया तुमने नावेद ? अपनी ही जमात के खिलाफ मुखबिरी कर दी ?" एरिया कमांडर से बहुत सख्त स्वर में पूछा 
"गद्दारी नहीं भाईजान, खुद को और तुम सबको गुनाहों के मकड़जाल से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा हूँ I"
"चुप रहो ! अपने मज़हब और जमात से गद्दारी करना कुफ़्र है !" 
"कुफ्र ? और जो मासूम बच्चों से भरे स्कूल को बम से उड़ाने का हुक्म दिया गया है, वो क्या है ?"
"तो क्या तुम बम ब्लास्ट नहीं करोगे ?"
"करूँगा, ज़रूर करूँगा I" उसने एरिया कमांडर को खींचकर बाँहों में भर लिया I नावेद के चेहरे पर अजीब सी चमक आ गई थी I 
"अल्लाह हू अकबर !" का ज़ोरदार नारा लगाये हुए नावेद ने अपनी जैकेट के अंदर एक बटन दबा दिया ।
*******************************************************
(१०.) सुश्री नेहा अग्रवाल जी 

 "नादान"
आज बहुत दिन से उदास उदास सी मैना बहुत खुश नजर आ रही थी ।वह बात बात में मुस्कुरा रही थी ।और तो और साथ में गुनगुना भी रही थी। आस पास सब हैरान ,  क्या हुआ है आज ऐसा, जब रहा ना गया तो एक पडोसन पूछ ही बैठी खुशी का सबब, मैना चहचहा कर बोली पैगाम आया है एक नादान परिंदा घर वापस आने वाला है । प्यार की परीभाषा बताने वाला है।
तभी परिंदा वापस तो आया पर अकेला नहीं अब मैना प्यार की यह नयी परीभाषा समझने की जुस्तजू में लगी है।
************************************************
(११). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी 
दुर्गन्धयुक्त सड़न (परिभाषा )

" गुरुजी , आप कितना बढ़िया मार्गदर्शन करते हैं हम शोध छात्रों का और कितना ख्याल रखते हैं ।"
" हाँ ,तुम्हारा तो मैं विशेष ध्यान रखता हूँ ।तुममे अपार क्षमता हैं ।तुम अगर चाहो तो मैं क्षणों में तुम्हारा शोध पूरा करवा दूँ।"
" वो कैसे गुरूजी ?"
" बस मैं ना सुनने का आदि नहीं हूँ ,मेरी बात काटना और हर बात पर क्या , क्यों पूछना छोड़ दो ।" अजीब सी निगाहों से घूरते हुए कहा
रेवा को गुरूजी की निगाहो में निश्छल स्नेह के स्थान पर वासना से अभिभूत अनेको कीड़े बिलबिलाते नजर आने लगे और उन निगाहों से तार -तार होती गुरु-शिष्य की उत्कृष्ट परिभाषा दुर्गन्धयुक्त सड़न में परिवर्तित हो रही थी।
****************************************
(१२). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी 
"सच्ची बहादुरी"
उसने विद्यालय के शौचालय में घुस कर चारों ओर देखा, किसी को न पा कर, जेब में हाथ डाला और अस्थमा का पम्प निकाल कर वो पफ लेने ही वाला था कि बाहर आहट हुई, उसने जल्दी से पम्प फिर से जेब में डाल दिया|
अंदर उसका एक मित्र रोहन आ रहा था, कई दिनों बाद रोहन को देख वो एकदम पहचान नहीं पाया, रोहन के पीले पड़े चेहरे पर कई सारे दाग हो गये थे, काफी बाल भी झड़ गये थे| उसने रोहन से पूछा, "ये क्या हुआ तुझे?"
"बहुत बीमार हो गया था|"
"ओह, लेकिन इस तरह स्कूल में आना? कम से कम कैप तो लगा लेता|"
"नहीं, जैसा मैं हूँ वैसा दिखने में शर्म कैसी?"
यह सुनकर वो हतप्रभ सा रह गया, लगभग भागता हुआ शौचालय से बाहर मैदान में गया, अस्थमा का पम्प जेब से निकाल कर पहली बार सबके सामने लिया और अपने असली स्वरुप के साथ खुली हवा में ज़ोर की सांस ली|
**************************************
(१३). श्री सौरभ पाण्डेय जी 
परिभाषा 
"जीवन का सत्य क्या है, पिताजी ?" "तुम बताओ.. क्या है ?" "मैं तो पूछ रहा हूँ न !.." "कुछ पूछने से पहले क्या ये नहीं बताओगे कि तुम ऐसे प्रश्नों के उत्तर के लिए सही पात्र हो ?"
भृगु सोच में पड़ गया. थोडी ही देर बाद वह लाइब्रेरी चला गया. उसका यह क्रम कई हफ़्तों चला. एक रविवार की दोपहर वह फिर पिताजी के पास आया - "पिताजी, जीवन का सत्य है सफलता ! यानी सुखी जीवन.. सुख-सुविधा, गाड़ी-बंगला, नाम-यश, विवाह-संतान.. यानि कि आनन्द.. " भृगु की आँखें रोमांच से बड़ी हो गयी थीं.
"तो फिर सेठ वैभवचन्द ऐसा निरीह जीवन क्यों जी रहे हैं ? वे तो अरबपति बिजनेसमैन हैं न ? पर आज वे पूरी तरह से बिस्तर पर हैं. अपने मन का भोजन तक नहीं कर सकते.. और भृगु, ये आनन्द क्या बला है ?"
भृगु को कुछ कहते न बना, वह सोचने लगा - "..आनन्द स्व-आरोपित प्रत्याशा की उपज है या अनुभूत गहन भावमुग्धता ? वाकई ये क्या है ?"
वह फिर हफ़्तों लाइब्रेरी की भिन्न-भिम्न पुस्तकें खँगालता रहा. एक दिन फिर पिताजी के सामने खड़ा हुआ - "पिताजी, आत्मीय तृप्ति ही आनन्द है. संतोष ही आनन्द है.."
"तृप्ति या संतोष ?"
"ये दोनों अलग-अलग हैं क्या ? मेरी समझ से तो दोनों.. "
"दोनों दो इकाइयाँ हैं.." - पिताजी की प्रखर आवाज़ सीधी-सीधी कानों में आयी - "..एक प्रक्रिया की अनवरतता का निरुपण है, तो दूसरी प्रक्रिया की पूर्णता का रुपायन है. अब बताओ इनमें से आनन्द किस के कारण संभव है ?"
भृगु फिर से सोच में पड़ गया था. अब वह अधिक से अधिक समय लाइब्रेरी में बिताने लगा. इस बीच उसकी बोली-चाली, उसका सोचना-विचारना, उसकी आदत, उसका व्यवहार सबकुछ बदल चुका था. इसी क्रम में वह अपने स्वाध्याय के साथ-साथ अनायास ही अपनी एकेडेमिक पढ़ाई पर भी ध्यान देने लगा. अच्छे से अच्छे अंकों में उसे सफलता मिलती गयी. यूपीएससी के पहले ही अटेम्प्ट में वह बेस्ट थ्री में आ गया था.
भृगु पिताजी के सामने फिर खड़ा हुआ था - एक धीर-गंभीर, ओज से भरा किन्तु नम्र युवक ! उसकी आँखें झुकी हुई थीं. इधर पिताजी की आँखों मे आश्वस्ति की आत्मीय चमक थी. सीधी आँखों से ताकते हुए, हल्की मुस्कान के साथ उन्होंने पूछा - "बाइ द वे, तुमने बताया नहीं भृगु, आनन्द किससे है ? तृप्ति या संतोष ? किससे ?"
भृगु ने शिष्टवत आँखें उठायीं - "कर्म.. क्रियाशीलता.. वस्तुतः आनन्द कार्य-प्रक्रिया में है.." भृगु समझ रहा था कि वह सही बोल रहा है, लेकिन उसकी आवाज रपटती-सी आ रही थी.
पिताजी निहाल थे. आँखें डबडबायी जा रही थीं. गला रुँध रहा था - "तो क्या, प्रक्रिया का ही प्रतिफल है ये सफलता ?"
"जी नहीं. समाज के सर्वसमावेशी स्वरूप को समझने का प्रयास आनन्द की परिभाषा का मूल है, पिताजी.. "
"सही.. ! लेकिन ये तो हर तत्त्व-पुस्तक की मीमांसा का मूल है. यही निष्कर्ष है. फिर अबतक क्या करते रहे ?.. "
"आनन्द की परिभाषा का प्रमाणीकरण !.. सफलता तो इसका अनुफलन मात्र है पिताजी, एक बाइ-प्रोडक्ट ! मुख्य है तत्त्व की परिभाषा का बोध.. "
"जीते रहो बेटा.. इस समाज को तुम्हारी ही आवश्यकता है.. जाओ आनन्द लो.. "
************************************************
(१४). सुश्री ज्योत्स्ना कपिल जी 
सुख की तलाश
" ऐसे मायूस क्यूँ नज़र आ रहे हो हेमन्त ?"
" कुछ नहीं संजय-सोच रहा हूँ कि आखिर सुख की परिभाषा क्या है "
" तो क्या निष्कर्ष निकाला ?"
" तू तो सब जानता है -कि बचपन कितना तंगी में गुज़रा-हम सब साथ थे-पर एक-एक चीज़ के लिए तरसते थे-तब निश्चय किया कि इतनी दौलत कमाऊँगा कि जो चाहे हासिल कर सकूँ-और आज ...बेशुमार दौलत है मेरे पास "
" तो फिर परेशानी का सबब क्या है ?"
" यही....कि मैं यहाँ एकाकी बैठा हूँ.... और मेरा परिवार अपने-अपने सुखों की तलाश में है "
******************************************
(१५). सुश्री नीता कसार जी 
सुंदरता की परिभाषा
"अरे माला तुम यहाँ कैसे ? एक ही शहर में रहने के बावजूद आज कितने बरस बाद हम मिल रही है I" नीरा ने माला से कहा । दोनों एक दूसरे को बाज़ार में देख आश्चर्यचकित हुई। दोनों सहेलियाँ बरसों बाद मिल कर इतनी खुश थीं जैसे उन्हें कोई जन्नत मिल गई हो I
"बता घर में सब कैसे है ? नीरा उतावली हो रही थीI
"सब ठीक हैं, बेटे की शादी कर दी थी दो साल पहले I".
"वाह !! बहू कैसी है तेरी ?"
"हम अच्छे है तो बहू भी हमें अच्छी ही मिली नसीब से। ये देख फ़ोटो उसका I" झट से माला ने मोबाइल बढ़ा दिया।
'अरे ! लेकिन तेरा बेटा नीरज तो इस से कहीं सुन्दर है, ये तो उसके पासंगे भी नहीं, कहाँ वह हीरो, और कहाँ ये ..........।"
"सुन, हमने तन की नहीं मन की सुंदरता देखी I तन की सुंदरता के फेर में पड़ते तो हम भी अपनी सहेली सरोज की तरह ही आज वृदधाश्रम ............।"
********************************************************
(१६). श्री रवि प्रभाकर जी 
बदलती परिभाषाएं
शिष्य आज बहुत प्रसन्न था और प्रसन्न भी क्यों न होता। बड़े-बड़े नामचीन दिग्गज साहित्यकारों की बजाए उसकी पुस्तक को राष्ट्रीय स्तर के साहित्यक पुरस्कार के लिए नामांकित जो किया गया था। यही खुशी बांटने वह पुरोधाओं के पास पहुंचा जो उसकी पुस्तक हाथ में लिए गहन मंथन में डूबे हुए थे।
‘भई इस रचना में तो यह फलां-फलां दोष है।’ माथे पर चिंता की गहरी रेखाएं लिए वरिष्ठ पुरोधा अन्य पुराधाओं से बोला
‘हां-हां ! फलां दोष के साथ-साथ इसमें ढिमका दोष भी है।’ दूसरे पुरोधा भी उसकी हां में हां मिलाते हुए बोले
‘क्षमा चाहता हूं गुरूजनों ! यह तो पूर्णतः आप द्वारा स्थापित परिभाषायों के अनुरूप है, तो इसमें दोष कैसा?’ शिष्य ने शंकित स्वर में पूछा
‘लगता है अब परिभाषाएं बदलने का वक्त आ गया है।’ वरिष्ठ पुरोधा अन्य पुराधाओं से मुखातिब होते हुए धीरे से बोला
**************************************
(१७). श्री मधुसूदन दीक्षित जी 
परिभाषा
" तेरी सास भी काफी कमजोर हो गयी है उनका ख्याल रखा कर " मायके आई रमा को समझाते हुए सरला ने कहा।
" अब समय से खाना- नाश्ता देती हूँ और कैसे ख्याल रखूं ?
" आप बताओ आपकी सेवा हो रही है कि नहीं ? रमा ने पूछा।
" ठीक वैसे ही जैसे तुम वहाँ चाय- नाश्ता- खाना देकर कर रही हो "।तुम्हारे प्यार के दो बोल मुझे जो सुकून दे जाते हैं शायद यही कमी तुम्हारी सास भी महसूस करती होगी।
अनपढ़ सरला के मुंह सेवा और स्नेह की ऐसी परिभाषा सुन अचम्भित रह गई।
*********************************************
(१८). श्री जवाहर लाल सिंह  जी 
अपनी अपनी राय!
'मांझी, द माउंटेन मैन' फिल्म देखेने के बाद कुछ मित्रों के बीच परिचर्चा
“क्या फिल्म बनाया है भाई! पूरा 'मुसहरी का सीन' उतार कर रख दिया!”
“ई नवाज्जुद्दीनवा भी गजबे रोल निभाया है, दशरथ मांझी का!”
“राधिका आप्टे ने भी अपनी भूमिका को बखूबी निभाया है!”
“एक आदमी २२ साल तक अकेले पहाड़ काट कर रास्ता बना दे, यह भी सुनने में अजीब लगता है न!”
“दशरथ मांझी को भी गजबे प्रेम था, अपनी बीबी से, शाहजहाँ तो उसके सामने कुच्छो नहीं है”
“लेकिन, तब भी दलितों पर भयंकर जुल्म होता था.” 
“महा वाहियात है यह फिल्म! मुसहरनी भला ऐसी सुन्दर हो सकती है! जैसा इसमें दिखाया है? इतना जुल्म थोड़े न होता था, दलितों पर! जैसा इसमें दिखाया गया है!” - एक व्यक्ति जो चुपचाप चर्चा सुन रहा था, अचानक बोल उठा. 
***************************************
(१९). सुश्री प्रतिभा पांडे जी 
मंथन
बरगद के पेड़ पर लटके कुछ भूत बात चीत में व्यस्त थे I
"चलो ,आज सब ये बताएँगे कि उनके भूतिया जीवन में सुख के क्या मायने हैं " एक बुजुर्ग भूत बोला I 
"मेरे लिए सुख के मायने हैं ..एक घने ,बिना भीड़ भाड़ वाले बरगद में चैन से लटके रहना I पर अपने टाइम से पहले  यहाँ आने की जल्दी दिखाने  वालों ने बरगदों में कितनी भीड़ बढ़ा दी है"   एक थका हुआ सा भूत चिढ़ कर बोला I
"और मेरे लिए सुख की परिभाषा है ,..इन बाबा ,ओझा और तांत्रिकों से मुक्ति.. , धुआं करके ,चिल्ला चिल्ला के कितना तंग करते हैं ये लोग " एक उत्तेजित सा दिखने वाला सींकिया भूत बोलाI
तभी एक 19 .20  वर्ष का भूत, धीरे धीरे सुबकने लगा I ये अभी तीन चार दिन पहले ही आया था इस बरगद पर I
"आप सब भूतिया सुख पर चर्चा कर रहे हैं ,पर अगर वो लोग यहाँ आ गए और अपनी नापाक हरकतें यहाँ भी शुरू कर दीं तो ....,इसी डर से मरा जा रहा हूँ मैं  " वो रोते रोते बोला I
"कौन लोग बेटा" ? बुज़ुर्ग भूत ने पूछा I
"वो ही लोग जिन्होंने मुझे जन्नत का लालच देकर मानव बम बना दिया था  I बहुत खतरनाक लोग हैं वो..,अपनी अम्मी और बहन के बारे में सोचता हूँ तो ...." वो फूट फूट कर रोने लगा I
सारे भूत हवा में रेंगते हुए धीरे धीरे उसके आस पास जमा हो गए  I  उन सब के चेहरे पर भी डर साफ़ नज़र आ रहा था I
***********************************************
(२०). श्री तेजवीर सिंह जी 
परिभाषा –  ( लघुकथा )
सेना की भर्ती चल रही थी!हज़ारों नौजवान एकत्र हुए थे!कुछ भाग- दौड में रह गये ! कुछ  लिखित - परीक्षा में अटक गये!गिने चुने तक़दीर वाले ही  साक्षात्कार तक पहुंचे! साक्षात्कार  में  हर एक  नौजवान  से एक सवाल  अनिवार्य रूप से पूछा जा रहा था कि ,”सेना में क्यूं जाना चाहते हो”! सभी का लगभग एक जैसा ही  सा उत्तर होता था, जो कि उन्हें, उनके प्रशिक्षकों द्वारा पहले से ही बताया  गया था "देश प्रेम या देश सेवा"! अगला प्रश्न होता था कि,"देश प्रेम की परिभाषा क्या है"! हर नवयुवक कोई ना कोई ऐसा जवाब दे  देता , जो कि उसे पहले से ही रटाया हुआ होता था  !
भोला सिंह  का नाम पुकारा गया! उससे भी वही प्रश्न!पर उसका जवाब था ," श्रीमान जी, हमको   भूख और गरीबी की परिभाषा आती है,जो कि हमारे  परिवार में खूब पनप रही  है,  खाली पेट ये देश प्रेम और देश सेवा की बातें याद नहीं रहती”!
*******************************************************
(२१). श्री मनन कुमार सिंह जी 
आरक्षण(लघुकथा)
-अरे आरक्षण जरुरी है भई,चल अब हम भी अपने लिए माँग करते हैं, नजरें नचाते भोला बोला।
-क्या जरुरी है?देश आजाद हुए अरसे गुजर गये और तुम वहीं चिपके हो,आरक्षण और संरक्षण में, मंजुल ने टोका।
-आजादी से क्या सम्बन्ध है इसका?
-है न,यही भेदभाव फैलाकर गोरों ने सदियों तक हमें गुलाम रखा और जाने लगे तो दो फाड़ करके चलते बने।
-वो तो मैं नहीं समझता,पर पिछड़ों के विकास के लिए यह जरुरी है कि नहीं?तुम्ही बोलो तो।
-मानता हूँ तेरी बात,पर अब पिछड़ापन क्या जाति आधारित रह गया है?अब तू बता।
-हाँ,वो तो है यार; ठगनु माँझी का परिवार कहाँ से कहाँ पहुँच गया,धन-सम्पदा व आला पद क्या नहीं है उनके यहाँ और वहीं गन्नू पंडित जी की बहुरिया मजूरी कर रही है।
-वही तो मैं भी कहूँ,मेरे भाई।मनुष्य का विकास अर्थ आधारित होता है,जाति आधारित नहीं।देखा न तूने आरक्षण का असर?
-तुम ठीक कहते हो भाई, यह बात जब उछाली जाती है तो इन सब बातों का ध्यान ही कहाँ रहता है।
-यही तो ध्यान देनेवाली बात है।नारा उछालकर लोग नेता बन जाते हैं,विकास वहीं ठहरा रहता है किसी दूसरे नारावादी की प्रतीक्षा में।और लोग तो लोग होते हैं,लग जाते हैं किसी भी नारा के पीछे;बिना सोचे समझे या खूब सोच समझकर कि हाँ,यह किसी खास मकसद से उछाला गया एक दिव्य पर मतलबविहीन मन्त्र है।
****************************************************
(२२). श्री सुधीर द्धिवेदी जी 
पर उपदेश कुशल.. 
बच्चों को वाक्य रटने को कह मास्टर जी कक्षा छोड़ अपने खेतों में पानी लगाने ऐसे गए कि छुट्टी होने तक वापस न आये थे | इधर कक्षा से छुट्टी होने तक बच्चों द्वारा उनके बताये उसी वाक्य को दोहराये जाने की आवाजें आती रहीं...
“सही मायनों में ईमानदार वही होता है, जो अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाता है....|”
“सही मायनों में ईमानदार वही होता है, जो अपना कर्तव्य पूरी निष्ठा से निभाता है....|”
**********************************
(२३). सुश्री उपमा सिंह जी  
परिभाषा
"अरी ओ कमला।कहां है राजू ?" शिखा तेज स्वर में बोली।
"जी दीदी,उसे बुखार है।"कमला ने सिर झुकाकर जबाब दिया।
"बुखार ही तो है।कोई हाथ पैर तो नहीं टूटे।जा जाकर बुला ला।फिर निमिष के साथ खेलना ही तो है।कोई पहाड़ तो तुड़वा नहीं रही।"शिखा बड़बड़ायी
"दीदी बहुत तेज बुखार है उसे।उठ भी नहीं पा रहा।"
"देख ले नहीं तो नौकरी से छुट्टी समझ।"
"शिखा लगता है राजू सच में बीमार है।तू जिद क्यों कर रही है ?"
"निशा तू नहीं समझेगी।फिर पैसे देती हूं खेलने के भी।देखना अब आ जायेगा।"
राजू अनमना सा निमिष के साथ खेलने लगा।
"देख ले निशा,क्या कहा था मैने ?"
"हां शिखा तूने सच ही कहा बचपन वही,खेल वही लेकिन परिभाषायें अलग किसी के लिए आनन्द तो किसी के लिए मजबूरी।"
*********************************************
(२४). श्री लक्ष्मण  रामानुज लडीवाला 
त्याग (लघु कथा)
एक घन्टे तक इंतजार के बाद रामदीन जी ने बाहर से आये मेहमान से कहाँ “क्षमा करे मै पूजा पाठ में व्यस्त था” | मेहमान ने कहा मै तो 4-5 भिखारियों को 5-5 रुपये भीख में दे देता हूँ ये भी धर्म ही है | पूजा पाठ तो स्वाध्याय है धर्म नहीं | रामदीन जी – एक लोटे में से 2-4 बूँदें दे देना कोई दान नहीं होता | वारेन बफेट हर 5 वर्ष में आपनी आधी पूँजी दान कर देते है फिर भी खरफपति अमीर है | अरे साहब आखर फिर दान किसे कहते है ?
इतने में रामदीन की बिटियाँ बीच में बोली – राजा शिवी ने अपना मॉस काट कर दान कर दिया था | कर्ण ने अपने बहुमूल्य कुंडल कवच दान कर दिए था, एकलव्य ने अंगूठा दक्षिणा में दे दिया था अर्थात ऐसा त्याग जिससे आप अर्थहीन या शक्तिहीन होने तक सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहे, और जिसे देकर भी आप को कोई मलाल न हो, वही असल दान है | बिना त्याग व समर्पण की भावना के कैसा दान ? बिटियाँ के पिता रामदीन और मेहमान दोनों बिटियाँ की बात सुन सोचते रह गए |
***************************************************
(२५). सुश्री राजेश कुमारी जी 
 
“अब आपके सामने आठवीं कक्षा के  प्रियांक आ रहे हैं ‘आदर्श परिवार’ पर अपने विचार प्रस्तुत करने कृपया तालियों से बच्चों  का उत्साह वर्धन करते रहें”| एक बार फिर सब बच्चों के माता-पिता से खचाखच भरा हुआ हाल तालियों से गूँज उठा|
प्रियांक के मम्मी-पापा अवाक एक दूसरे को देखते रह गए एक हफ्ते पहले ही तो प्रियांक ने दोनों से ‘आदर्श परिवार’ की परिभाषा पर अपने विचार लिखने के लिए दोनों से सहायता मांगी थी मगर उन दोनों ने ही एक दूसरे पर ये काम डाल  दिया था अंततः कोई सा भी उसकी मदद नहीं कर पाया था| अब प्रियांक क्या बोलेगा यही सोचकर दोनों के दिल की धड़कने तेज हो गई|
“आदर्श परिवार वो है जहाँ सुबह-सुबह भगवान् को हाथ जोड़कर नमस्कार किया जाता है ,जहाँ सुबह सबसे पहले दादा दादी को चाय दी जाती है,जहाँ मम्मी पापा काम में एक दूसरे का हाथ बटाते हैं,बात-बात पर झगड़ा नहीं करते,जहाँ बच्चों की ख़ुशी का ध्यान रखते हैं, घर में हँसी गूँजती है, सुख शान्ति निवास करती है वो ही आदर्श परिवार होता है” प्रियांक इधर ये सब कह रहा था उधर  मम्मी पापा दोनों की गर्दने गर्व से तनी जा रही थी,आँखों में चमक बढ़ रही थी |
कुछ रुक कर प्रियांक आगे बोला “ क्यूंकि झूठ बोलना पाप है इसलिए मैं सच कहता हूँ ये आदर्श परिवार मेरे दोस्त गोलू जो हमारे ड्राईवर का बेटा है उसका है उसी ने मेरा ये  स्पीच तैयार करवाया , मेरे अपने परिवार की परिभाषा क्या है वो मुझे नहीं आती”.    
 ******************************************************
(२६). श्री मोहन बेगोवाल जी 
रिश्तों की परिभाषा 
“मेरे बाप ने मुझे बदतमीज़ और बिगड़े हुए बेटे का ख़िताब दिया होगा और मैनें भी बाप को पुराने ख्यालों वाला और जाहिल इन्सान करार दिया” सौरभ रात भर यही सोचता रहा और ठीक से सो भी न पाया |
कल देर रात तक जिस प्रसंग में सौरभ और रमेश के बीच परिचर्चा चल रही थी उसका केंद्रीय मुद्दा था “हमारे युग में माँ बाप व् बच्चों के दरमियाँ पैदा होती दरार” |
मगर वह समझ नहीं पा रहा था कि इस परिचर्चा में उसने खुद को ऐसी स्थिति में क्यों और कैसे पाया | यहाँ वह ये सोचने की बजाये कि , ये नई पीड़ी में सब कुछ बकवास ही चल रहा है और कैसे हमारे बजुर्ग अच्छे थे और कैसे हम सब बाप की कही हर सही गलत बात को मान लेते थे | 
फिर सौरभ ने खुद से व्यंग से कहा ,“क्योंकि हम तो बाप के बंधुआ मजदूर थे उनके कहे मुताबिक काम करते थे, हम अपनी मर्जी तो कर नहीं सकते थे|कभी कोई हक भी नहीं जतलाते और क्या कहें कि अरमानों को दिल की कबर में ही दफन कर लेते थे ” |
हमारे माँ बाप सर उठा कर कहते थे “हमारे बच्चों ने ‘न’ कहना तो सीखा ही नहीं ” "हमारी बेटी तो गाय है". इत्यादि इत्यादि |
तब हमें भी समझ नही आता था कि बाप कि इन शब्दों को ‘इज्जत’ के खाते में रखे या ‘गुलामी’ के,और यह कैसे संभव हो जाता था कि ‘न’ कहना तो हमने सीखा ही नहीं | ” 
तब उसे रमेश की कही यह बात याद आई “कल को हमीं लोग बज़ुर्ग होंगे , हमें भी उन हालातों के साथ जूझना पड़ेगा | तब शायद बजुर्गों के थमाए वो हथियार हमारे काम न आए और हमें नये बनाने पड़े.” |
रमेश ने सौरभ के कहे मुताबिक पीढीयों के दरमियाँ बनते नए रिश्तो की परिभाषा लिख दी “हम आप की इज्जत तो करते, दिखाते नहीं,हमारे दिल की बात जुबान पे होती है,हम छुपाते नहीं” तब उस ने ये लिख कर ‘रिश्ते जरूरत से बनते हैं,खून वाले रिश्ते भी तो …..,” फिर दोनों ने साथ साथ इसको पढ़ा और दोनों एक दुसरे की तरफ देखने लगे |
********************************  
(२७). डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
नारद के हाथ वीणा के तारों से छिटक गए उन्होंने भय और आश्चर्य से देखा एक सवर्ण मंदिर के बाहर से भगवान का दर्शन पाने की चेष्टा कर रहा है और पंडित के दलित पुजारी उसे लाठी दिखा रहा है –‘ख़बरदार जो मंदिर की सीढ़ी पर पैर रखा, साल्ले --सवर्ण कही के -’
ब्रह्मर्षि नारद का सवर्णत्व काँप उठा I मृत्यु लोक में यह अनाचार I नारद सीधे बैकुंठ पहुंचे –‘प्रभो, आपको पता ही नहीं मृत्यु  लोक में कैसा अंधेर मचा है, दलित सवर्ण पर अत्याचार कर रहे हैं I’
‘तो इसमें आश्चर्य कैसा नारद ! समय के साथ सब कुछ बदलता है i कल तक जहां तुम थे वहीं पर आज वे हैं I अंतर केवल अपनी-अपनी बारी का है I आप तो ब्रह्मवेत्ता है, जानते हैं कि परिभाषा युगानुसार बदलती है I’  
******************************
(२८). श्री वीरेन्द्र वीर मेहता जी
'ईमानदारी की भाषा'
"कमल बाबू आपने शायद मुझे पहचाना नही, मैं संदीप जैन! आपके साले साहब के यहां 'ईमानदारी की भाषा' पर हुयी चर्चा के दौरान मिला था।"
"हाँ! हाँ! याद आया, आप यहाँ कैसे?" आयकर विभाग में कार्यरत कमलकांतजी याद करते हुये बोले।
"कुछ नही कमल बाबू बस जरा मेरी एक फाईल आयकर के झमेले में फंस गयी है, अब ऐसे में आपसे अधिक करीबी और 'ईमानदार' सहयोगी मुझे भला कौन मिलेगा?" संदीपजी ने ईमानदार शब्द पर कुछ अधिक ही जोर दिया।
"अब भला ये ईमानदार शब्द की क्या जरूरत थी, बस 'डीटेलस' बताईये आप तो। हमारे होते हुये आपका काम न हो।" कमलकांत जी ने कागज उठाते हुये कहा।........
"भाईसाहब इतनी सी बात। ये कार्ड लीजिये, बस इस नम्बर पर बात कर लेना आप" कमलकांत जी सारी बात सुनकर हॅसते हुये बोले।
"लेकिन.....।" संदीपजी ने कुछ कहना चाहा।
"आप निश्चिंत होकर घर जाये संदीप भाई ये अधिकारी मेरे खास मित्र है और बहुत ही कम 'सहयोग राशि' पर आप की समस्या हल कर देंगे। और हाँ मेरी पत्नि बता रही थी कि आप के यहां ज्वैलरी बहुत सुन्दर मिलती है, भाई साहब एकाद हमें भी लाकर तो दिखाओ।" कमलकांतजी ने हँसते हुये विजिटींग कार्ड उनके हाथ में थमा दिया।
और संदीपजी हाथ में 'कार्ड' थामे सहयोग राशि और ज्वैलरी में परिवर्तित ईमानदारी की इस नयी परिभाषा को समझने की कोशिश करने लगे।
************************************
(२९). श्री विनोद खनगवाल जी  
रिश्तों की परिभाषा
"ममता बेटा, तुम्हारी बुआ अभी तक हमारे घर क्यों नहीं आई है? जरा अपने चाचा के घर जाकर देखकर आओ ना।"- सुबह से शाम होने को आई थी लेकिन निशा अभी तक राखी बांधने नहीं आई। सुरेश का दिल बैठा जा रहा था।
"पापा-पापा जरा देखो निशा बुआ तो जा रही है।"
सुरेश भागता हुआ घर से बाहर आया। निशा कार में बैठ रही थी। निशा ने सुरेश को देखा तो उसके पास आकर बोली।- "भाई, मुझे माफ कर देना। अब परिवार बड़ा हो गया है। सबको संभालना पड़ता है अब इतना सब आगे से मैनेज नहीं कर पाऊँगी।"
सुरेश ने बहन की मजबूरी समझते हुए रूंधे मन से उसको खुशी-खुशी विदा किया।
"पापा, ये सगा क्या होता है?"
"क्या हुआ बेटा....."
"वो जब मैं बुआ को देखने गई तो कमरे से निकलते हुए बुआ चाचा के कह रही थी। भाई अब तुम्हारे तो कोई लड़की है नही और उनके घर में चार-चार हो गई हैं। अगर उनसे रिश्ता रखेंगे तो मैं इस तरफ से उनसे एक ही लूंगी और वो तुमसे चार-चार। रिश्ता यहीं खत्म कर देते हैं पड़ोसी ही तो है कौन सा सगा है।"
*************************
(३०).  श्री बबिता चौबे जी 
"परिभाषा"
"बाबू साहब , हम अंधे भिखमंगे पति - पत्नी बरसों का ये बस्ती हमारी , अब हम बेघर कहॉ जाये ! "- उसकी आंखे भरी हुई थी ।
"अरे तो वह झोपडी सरकारी जमीन पर थी सरकार ने लेली । "
"ठीक है साहब , जमीन सरकारी थी , मगर झोपडी तो सरकारी नही थी , वो तो मेरी मेहनत की थी । इस गरीब की झोपडी ही लौटा दिजीये । गरीबो के लिए भी तो बहुत सी सहायता होगी ना ।"
"है ना, मगर तुम गरीब की परिभाषा में भी नही आते हो । "
"गरीब की परिभाषा वो क्या है ? "
"अरे नियम की पुस्तक में साफ साफ लिखा है कि जिस परिवार की आय...... रूपये से कम होगी वही गरीब माना जायेगा। "
"मगर बेटा हमारी तो आय कुछ है ही नही । "
"वही तो नियम में साफ लिखा है कि आय कम होना चाहिये, ये नही लिखा कि आय कुछ नहीं होनी चाहिए समझे आप ! गरीब की परिभाषा में नही है तो सरकारी सहायता नही मिल सकती ! ""
*****************************
(३१). सुश्री अर्चना ठाकुर जी 
बहुत सुन्दर, बेहद सुन्दर ...
वो सुनती रहती और मन ही मन इठलाती रहती, उसका रूप लावाय्र्ण सबको कितना सुहाता है, उसे देख कर उसके रूप के कसीदे पढ़े बिना कोई नहीं रह सकता|
वो मन ही मन सोचती रहती और फिर किसी राजकुमार के सपनों में खो जाती यही उसकी सोच की इति थी|
रूपा और मीता दो सगी बहने उम्र में एक दो साल का फर्क और रूप में ज़मीन आसमान सा फर्क था रूपा जहाँ अपने नाम के अनुरूप अति सुन्दर थी वही मीता दबे रंगत की थी| 
रूपा का सारा दिन अपने मुख को निहारने और बालों को सँवारने में जाता वही मीता हमेशा किताबों की दुनिया में खोई रहती अपने इसी शब्दों की दुनिया में गोता लगाती कब मीता पढ़ते पढ़ते शब्दों से खेलती लिखने भी लगी ये उसे भी याद नहीं| 
कॉलेज के वार्षिकोत्सव का दिन था| हमेशा की तरह रूपा सजी संवरी घूम रही थी कोई उसी ड्रेस की तो कोई उसकी सुन्दरता की बधाई कर रहा था तभी कुछ ऐसा हुआ जिसे देख सुन वो हैरत में पड़ गई|
कॉलेज के प्रिंसिपल मीता के तारीफों के पुल बांध रहे थे| वे जो एक हिंदी के विख्यात लेखक भी थे और कॉलेज मैगजिन में छपी मीता की कहानी पर उसके लेखन की तारीफ किए जा रहे थे और आगे उसकी कहानी संग्रह निकालने पर अपनी राय व्यक्त कर रहे थे|अब एक नई परिभाषा रूपा के आगे पस्फुटित हो चुकी थी|
*************************************
(३२). सुश्री जानकी वाही जी 
" परिभाषा "
" अमर चंद जी , एक बिटिया है आपकी ,पर लम्बे चौड़े कारोबार को चलाने के लिए एक लड़का चाहिए था ?
"नर्स सुरेखा जी ,अच्छी खासी पेंशन लेती हैं पर एक लाख रूपये बुरे किसे लगते हैं ?
" परबतिया और श्यामू , पाँच बच्चे घर में , छठे को तीन लाख के लिए बेच दिया ?.... "आई ऍम राईट ..... गहरी नज़रों से सबको देखते हुए इंस्पेक्टर "प्रताप सिंह बोले ।
"सर " बच्चे के अपहरण का केस तो सुलझ गया, अब क्या आदेश है ?
"सुमेर सिंह जी , कहानी बड़ी दिलचस्प है । सोच रहा हूँ , सबके अपने-अपने स्वार्थ अपने -अपने लालच , फिर कहानी में झोल कहाँ आया ?
"सर ,ये लालच में आकर पाँच लाख और माँग रहे थे । 'सौ रुपये के स्टाम्प पेपर ' पर रज़ामन्दी हुई थी "अमर चंद जी ने हिम्मत की ।
"सर ,हम दोनों को लगा बच्चे जा सौदा तीन लाख में सस्ता हुआ ? और रूपये नही मिलने पर अपहरण का केस दर्ज़ करवाया । "परबतिया और स्यामू, गिड़गिड़ाए ।
वही तो , ...... हद है लालच की ...
" अमर चंद जी को लड़के का ।
"नर्स सुरेखा को , कमीशन का ।
" परबतिया और स्यामू को रुपयों का ।
"हमारा तो दिमाग ,घूम गया । बेकार में दौड़ धूप करवा दी । अरे , और भी काम हैं ज़माने में ?
ये फ़ालतू केस ही सुलझाते रहें क्या ?
"सर, अब क्या करें ?
करना क्या है " सुमेर सिंह जी ,
'बच्चा इनके माँ बाप को लौटा दो ।
" अमर चंद जी को ससम्मान घर जाने दो ।
आप "सुरेखा जी इस उम्र में भजन -वज़न करें ।
और हाँ ,.... तीन लाख में से बचे ज़ब्त दो लाख रूपये , अज़नबी नाम से वृद्धाश्रम में दान कर दें .
"केस डिसमिस .............  
**********************************

(३३). सुश्री शशि बांसल जी 
वक्ती-रिश्ते
------------

चार रोज़ गुजर चुके थे ।मायके से कोई फ़ोन नहीं आया था । जब भी ऐसा होता मधु स्वयं उनका हालचाल जान लेती ।वह सबको बार बार फ़ोन लगा रही थी , परंतु कोई प्रत्युत्तर नहीं मिल रहा था । वह घबराते हुए पति को साथ ले मायके दौड़ी ।दरवाज़े हलके से धक्के से खुल गया ।माँ, बाऊजी , भैया , भाभी और उनकी एकमात्र बिटिया चित्त पड़े हुए थे ।मधु समझ गई सब कुछ ख़त्म हो चुका है । ' उनकी बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई थी शायद , इसलिए इतना बड़ा कदम उठाने से पहले उससे बात भी नहीं की ।' मधु मायके के सब हालातों से वाक़िफ़ थी ।उन्हें व्यवसाय में घाटा क्या लगा उनकी पूरी दुनिया ही बदल गई थी । सारे रिश्ते - नाते दूर जा छिटके थे और इस कुपरिस्थिति का आनंद ले रहे थे। सब ओर से मिल रहे अपमान , परेशानी व दुःख से वे टूट चुके थे । आशा के सभी द्वार भी बंद हो गए थे ।हालात इतने भयावह थे कि मधु और उसके पति द्वारा किये प्रयास ऊँट के मुँह में जीरे के समान थे । कर्ज के बोझ ने उन्हें अधमरा पहले ही कर दिया था , आज रस्मअदायगी भी हो गई थी ।अचानक मधु ने पथरायी आँखों से एक हृदय-विदारक निर्णय लेते हुए पुलिस को फ़ोन लगा रहे पति से कहा ," सुनिए , आप सब कार्यवाही के बाद इनके दाह - संस्कार की तैयारी कीजिये , मुखाग्नि मैं दूँगी । विनती है कि किसी नातेदार को सूचित न करें । जो रिश्ते इनके जीतेजी साथ में दो सूखी रोटी नहीं खा सके , उन्हें मृत्यु-भोज खाने का भी अधिकार नहीं "**********************************************
(३४). श्री सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा जी 
लघुकथा .......................परिभाषा

सुधा ने बेटी की सगाई फिक्स की तो पुरानी मित्रता के चलते उसे भी सूचना भिजवा दी . जब से अरविन्द गए थे , मैच्योर बच्चों के बीच सुधा ने उसके साथ दूरिओं को जगह दे दी . उसे तकलीफ ही नहीं सदमा भी लगा था पर बच्चों के बीच सुधा के मातृत्व की गरिमा और विश्वास को कोई ठेस न लगे उसने अपने दिल की हर उलझन पर पत्थरों की परते जमा दी थीं . अरविन्द , सुधा के कमजोर कंधों पर बिटिया के विवाह की महती जिम्मेदारी छोड़कर अचानक इस दुनिया से चले गए थे . समय ने घावों को आधा - अधूरा ही सही पर भरा जरूर और जब उसे सुधा की बेटी के विवाह की सूचना मिली तो उसके हाथ ईश्वर के प्रति धन्यवाद के लिए उठ गए वह सोचने लगा आज अरविन्द जी की आत्मा निश्चय ही शांत हो गयी होगी .वह नियत समय पर विवाह स्थल पर बेटी को आशीर्वाद देने पहुंच गया . 
' जरा इधर आकर मेरी बात सुनो .' भीड़भाड़ से थोड़ा अलगाव मिलते ही उसने सुधा से कहा .
' जल्दी बोलो ! कोई भी देख सकता है . बच्चे वैसे ही तुम्हे यहां देखकर मुझपर शक़ की निगाह डाल चुके हैं .
' बेटी का विवाह है और उसी की उतरी हुई साड़ी पहन कर रस्म - अदायगी कर रही हो ! हमेशा की तरह इस बार नई साड़ी नहीं ले सकती थीं ?
' फालतू बातें करनी हैं तो चले जाओ . किसी ने यह बातें करते देख - सुन लिया तो बवंडर आ जायेगा .'
' कुछ नहीं होगा . कह लेने दो मुझे . लगता है अपने ही घर में जहां हर बात की मंजूरी के लिए तुम्हारी भोहों की गति पर बात तय होती थी , वहीं पर एक अतिरिक्त बोझ की तरह रह रही हो .बहू के श्रगार के लिए चमचमाता परिधान , बेटी के लिए भी कोई कमी नहीं और इन सबके स्रोत यानी तुम्हारे लिए पुरानी उतरन ! स्वर्गवास अरविन्द जी का हुआ है और वनवास तुम भोग रही हो .'
' अब चुप भी रहो . यह सब नहीं देख सकते तो चले जाओ .'
' चाह कर भी नहीं रुक सकता ? याद करो एक - एक साड़ी के लिए दस - दस दुकानों पर जा - जा कर दस - दस साड़ियां खुलवाती थीं और तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से अच्छी तरह पहनने - परखने के बाद एक साड़ी तुम्हे पसंद आती थी . अब उसी सुधा को जब बेटी की उतरन पहने हुए देखा तो रहा नहीं गया .'
' बहुत रो चुकी हूँ अब मत रुलाओ .बताओ किसके साथ जाती अपने लिए साड़ी पसंद करने .'
' बुला नहीं सकती थीं . अब भी तो बुलाया ही है न . तभी तो आया हूँ .'
' क्या कहती बच्चों को . कौन से रिश्ते की डोर से बंध कर जाती तुम्हारे साथ अपने लिए साड़ी पसंद करने ?'
' क्या जीवन में हर रिश्ते को परिभाषा देना जरूरी होता है . सब कुछ परभाषित होता तो क्यों आता तुम्हारे एक बुलावे पर !'
' ठीक है ! आये हो तो दूल्हा - दुल्हन को आशीर्वाद दो और जाओ . '
******************************************************

(३५) सुश्री रश्मि तारिका जी 
( खातिरदारी)
" बहू ..तुम विजय जवाईं जी से बात क्यों नहीं करती ।नंदोई हैं तुम्हारे ..उनका मान सम्मान करना तुम्हारा फ़र्ज़ है ...नाराज़ नहीं होने चाहिए। इस बात का ध्यान रखना ।"
"माँजी..उनकी खातिरदारी में कोई कमी न रहे मैं ध्यान रख रही हूँ "।अपनी सफाई देते हुए निशा ने कहा।
" खाने पिलाने से केवल खातिरदारी नहीं होती । विजय जी शिकायत कर रहे थे कि तुम उनसे बात नहीं करती ।यह गलत बात है बहू।"
अपनी सास की बात सुनकर निशा अवाक रह गई। पिछली बार सबकी उपस्तिथि में भी नंदोई जी से ज़रा सी हँस कर बात की तो सासू माँ ने मर्यादा में रहने का एलान कर दिया और आज उनके आदेश का पालन करते हुए वो खामोश है तो नंदोई से बात करना अनिवार्य कर दिया गया। इसी कशमकश में उसने अचानक अपने कंधे पर हाथ महसूस हुआ ।
"अरे सलहज जी..क्या बात है ! हमसे नाराज़ हैं क्या ...कुछ सेवा भी नहीं करती ..."।
"आप अंदर जाइये ...मैं इनको भेजती हूँ आपकी खातिरदारी के लिए ।" निशा ने गुस्से से अंदर जाने का इशारा किया तो वो खिसिया कर अंदर चले गए। 
*******************************

 

Views: 8128

Reply to This

Replies to This Discussion

स्पष्ट एवं सटीक !

विश्वास है, आदरणीय शेख शहज़ाद साहब को उचित जानकारी मिल गयी है. अब आदरणीय शेख साहब से हार्दिक अनुरोध है कि इस मंच के नियमों के तहत रचनाकर्म करें और हम सभी को लाभान्वित करें. आपका आपकी रचनओं के साथ हार्दिक स्वागत है. 

जनाब शेख सहजाद उस्मानी जी के प्रश्न का सटीक उत्तर देने हेतु हार्दिक आभार भाई मिथिलेश जी .

मेरे ख्याल से भाई मिथिलेश वामनकर जी की टिप्पणी से आपको सब बातों का उत्तर मिल गया होगा I आप यदि पूरा समय आयोजन में रहते तो आपको यह बात उसी दौरान ही पता चल जाती !

इस आयोजन के सफलतापूर्वक सञ्चालन के लिए हार्दिक बधाई आद0 योगराज प्रभाकर जी ।
निवेदन है कि मेरी संशोधित रचना मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दी जाये । सादर ।

वक्ती-रिश्ते
--------------------

चार रोज़ गुजर चुके थे ।मायके से कोई फ़ोन नहीं आया था । जब भी ऐसा होता मधु स्वयं उनका हालचाल जान लेती ।वह सबको बार बार फ़ोन लगा रही थी , परंतु कोई प्रत्युत्तर नहीं मिल रहा था । वह घबराते हुए पति को साथ ले मायके दौड़ी ।दरवाज़े हलके से धक्के से खुल गया ।माँ, बाऊजी , भैया , भाभी और उनकी एकमात्र बिटिया चित्त पड़े हुए थे ।मधु समझ गई सब कुछ ख़त्म हो चुका है । ' उनकी बर्दाश्त की हद ख़त्म हो गई थी शायद , इसलिए इतना बड़ा कदम उठाने से पहले उससे बात भी नहीं की ।' मधु मायके के सब हालातों से वाक़िफ़ थी ।उन्हें व्यवसाय में घाटा क्या लगा उनकी पूरी दुनिया ही बदल गई थी । सारे रिश्ते - नाते दूर जा छिटके थे और इस कुपरिस्थिति का आनंद ले रहे थे। सब ओर से मिल रहे अपमान , परेशानी व दुःख से वे टूट चुके थे । आशा के सभी द्वार भी बंद हो गए थे ।हालात इतने भयावह थे कि मधु और उसके पति द्वारा किये प्रयास ऊँट के मुँह में जीरे के समान थे । कर्ज के बोझ ने उन्हें अधमरा पहले ही कर दिया था , आज रस्मअदायगी भी हो गई थी ।अचानक मधु ने पथरायी आँखों से एक हृदय-विदारक निर्णय लेते हुए पुलिस को फ़ोन लगा रहे पति से कहा ," सुनिए , आप सब कार्यवाही के बाद इनके दाह - संस्कार की तैयारी कीजिये , मुखाग्नि मैं दूँगी । विनती है कि किसी नातेदार को सूचित न करें । जो रिश्ते इनके जीतेजी साथ में दो सूखी रोटी नहीं खा सके , उन्हें मृत्यु-भोज खाने का भी अधिकार नहीं ।"

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित

वाह आदरणीय शशि जी आपकी कथा पहले भी बहुत बढ़िया थी किन्तु इस सुधार ने तो और भी शानदार बना दिया। गुरु जन का कथन भी है कि कथा पकने दें। बाकई पक़ और भी उच्च कोटि की बन गई। बहुत बधाई।
लघुकथा शामिल करने के लिए आदरणीय प्रभकरजि तथा मंच के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ।

वह सब तो ठीक है हुज़ूर, आपको धन्यवाद भी कहता हूँ, लेकिन रचना पोस्ट करने के बाद उसपर आई टिप्पणियाँ देखने की ज़हमत भी तो उठा लिया करें .

     सर जी, आप जी को  ऐसी तेज़ी से सभी लघुकथाओं का एक स्थान पे संकलन प्रस्तुतीकरण करने की बधाई और मेरी लघुकथा को जगह देने का हार्दिक आभार, क्योंकि मै इस विधा में नया   हूँ ,और बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है 

आप हार्दिक आभार आ० मोहन बेगोवाल जी I सीखना सिखाना तो इस मंच का मूल उद्देश्य है, यदि आपको इससे कुछ लाभ हुआ तो मुझे इसकी बेहद प्रसन्नता है I

आदरणीय योगराज प्रभाकर सर, अपनी लघुकथा में संशोधन हेतु दो सुझाव प्रस्तुत कर रहा हूँ आपको जो ज्यादा उचित लगे उसे प्रतिस्थापित कर दें! सादर 

संशोधन के लिए सुझाव

१.       “मांझी द माउंटेन मैन” फिल्म देखेने के बाद कुछ मित्रों के बीच परिचर्चा

“क्या फिल्म बनाया है भाई! पूरा मुसहरी का सीन उतार कर रख दिया!” – पहला  

“ई नवाज्जुद्दीनवा भी गजबे रोल निभाया है, दशरथ मांझी का!” – दूसरा

“राधिका आप्टे ने भी अपनी भूमिका को बखूबी निभाया है!” – तीसरा

“एक आदमी २२ साल तक अकेले पहाड़ काट कर रास्ता बना दे यह भी सुनने में अजीब लगता है न!” – चौथा

“दशरथ मांझी को भी गजबे प्रेम था अपनी बीबी से शाहजहाँ तो उसके सामने कुच्छो नहीं है” – पहला

“लेकिन तब भी दलितों पर भयंकर जुल्म होता था.” – दूसरा

पांचवां जो चुपचाप अबतक चर्चा सुन रहा था. अचानक बोला- “महा वाहियात है यह फिल्म! मुसहरनी भला ऐसी सुन्दर हो सकती है! जैसा इसमें दिखाया है? इतना जुल्म थोड़े न होता था दलितों पर! जैसा कि इसमें दिखाया गया है! साला ये फिल्म बनाने वाला दलितों की नयी परिभाषा गढ़ रहा है”

पहला – तो फिर मुखिया जी काहे को उठाके ले जाते थे मुसहरनियों को? सबों ने आवाक होकर पांचवें मित्र की तरफ देखा जो सवर्ण था.

 

२.       “मांझी द माउंटेन मैन” फिल्म देखेने के बाद कुछ मित्रों के बीच परिचर्चा

“क्या फिल्म बनाया है भाई! पूरा मुसहरी का सीन उतार कर रख दिया!” – पहला  

“ई नवाज्जुद्दीनवा भी गजबे रोल निभाया है, दशरथ मांझी का!” – दूसरा

“राधिका आप्टे ने भी अपनी भूमिका को बखूबी निभाया है!” – तीसरा

“एक आदमी २२ साल तक अकेले पहाड़ काट कर रास्ता बना दे यह भी सुनने में अजीब लगता है न!” – चौथा

“दशरथ मांझी को भी गजबे प्रेम था अपनी बीबी से शाहजहाँ तो उसके सामने कुच्छो नहीं है”  

“असली 'प्रेम की परिभाषा 'तो दसरथ मांझी ने बनाया जो आजतक की प्रेमकथाओं के लिए एक मिशाल है” – पहले मित्र ने अपनी बात पूरी की.  

आदरणीय योगराज जी ,इस सफल आयोजन ,और उसके त्वरित संकलन के लिए आपको ह्रदय से बधाई प्रेषित करती हूँ

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"अंतिम दो पदों में तुकांंत सुधार के साथ  _____ निवृत सेवा से हुए, अब निराली नौकरी,बाऊजी को चैन…"
2 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी _____ निवृत सेवा से हुए अब निराली नौकरी,बाऊजी को चैन से न बैठने दें पोतियाँ माँगतीं…"
4 hours ago
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी * दादा जी  के संग  तो उमंग  और   खुशियाँ  हैं, किस्से…"
14 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी छंद ++++++++++++++++++   देवों की है कर्म भूमि, भारत है धर्म भूमि, शिक्षा अपनी…"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post रोला छंद. . . .
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया ....
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी ।"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . कागज
"आदरणीय जी सृजन पर आपके मार्गदर्शन का दिल से आभार । सर आपसे अनुरोध है कि जिन भरती शब्दों का आपने…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .यथार्थ
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी सृजन के भावों को मान देने एवं समीक्षा का दिल से आभार । मार्गदर्शन का दिल से…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .यथार्थ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Tuesday
Admin posted discussions
Monday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया ....
"बंधुवर सुशील सरना, नमस्कार! 'श्याम' के दोहराव से बचा सकता था, शेष कहूँ तो भाव-प्रकाशन की…"
Dec 16

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service