परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 53 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह भारत के प्रसिद्ध शायर जनाब बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल से लिया गया है| पेश है मिसरा ए- तरह
"ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "
221 1222 221 1222
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 26 दिसंबर दिन शुक्रवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक 27 दिसंबर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय मिथिलेश जी, बहुत ही शानदार गजल है आपकी। हर शेर मुण्े ता लाजवाब लगता है। बधाई स्वीकार करें।
इस माह दिसम्बर में इन सर्द हवाओं में
दिलबर के बिना जीना मुश्किल है ख़िज़ाओं में
मन्दिर मैं नहीं जाता बच्चों को हँसाता हूँ
मुझको तो खुदा दिखता मासूम अदाओं में
हर शख़्स पशेमाँ है हर आँख में पानी है
होता है यही हासिल हर बार ग़ज़ाओं में
नाराज़ भले हो लो तुम छोड़ के मत जाओ
पहले ही मैं भटका हूँ अन्जान अमाओं में
जिस दिन से तुम्हें देखा नज़रों में तुम्हीं तुम हो
खुशबू मैं तुम्हारी ही पाता हूँ सबाओं में
होंठों पे तबस्सुम है आँखों में नहीं पानी
जीने का हुनर आया मुझको भी अज़ाओं में
हर रात गुज़रती है उम्मीद-ए-सहर पर ही
तुम खुद पे यकीं रक्खो थोड़ा सा बलाओं में
हम सब की ही फ़ितरत है औरों को बुरा कहना
खुद लाख बुरे लेकिन, मानें न अनाओं में
बच्चों के लिए जीना बच्चों के लिए मरना
बच्चों की खुशी माँगें माँ बाप दुआओं में
ग़ज़लें ये मेरे दिल से निकली हुई आहें हैं
जिस दिन मैं नहीं हूँगा गा लेना सदाओं में
इसको तू चकोरी से मिलवा दे 'दिनेश' अब तो
" ये चाँद बहुत भटका सावन की घटाओं में "
( मौलिक व अप्रकाशित )
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ग़ज़ा = मज़हबी लड़ाई ; अमा = ग़लत राह ;
अज़ा = कष्ट ;
इस माह दिसम्बर में इन सर्द हवाओं में
दिलबर के बिना जीना मुश्किल है ख़ज़ाओं में....बेहतरीन मतला
मन्दिर मैं नहीं जाता बच्चों को हँसाता हूँ
मुझको तो खुदा दिखता मासूम अदाओं में.......सुन्दर
हम सब की ही फ़ितरत है औरों को बुरा कहना
खुद लाख बुरे लेकिन, मानें न अनाओं में...... बहुत ही उम्दा अशआर
बच्चों के लिए जीना बच्चों के लिए मरना
बच्चों की खुशी माँगें माँ बाप दुआओं में...... क्या खूब कहन , बिलकुल जीवंत शेर ...
ग़ज़लें ये मेरे दिल से निकली हुई आहें हैं
जिस दिन मैं नहीं हूँगा गा लेना सदाओं में....वाह्ह्ह्ह दिल जीत लिया इस अशआर ने... दिल से दाद कुबूल कीजिये..
इस बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल के लिए आपको ढेर सारी बधाईयाँ .... आनंद आ गया इस प्रस्तुति को पढ़कर. आदरणीय दिनेश कुमार सर जी आपको बहुत बहुत बधाई इस बेहतरीन और दिल जीत लेने वाली ग़ज़ल के लिए.
मन्दिर मैं नहीं जाता बच्चों को हँसाता हूँ
मुझको तो खुदा दिखता मासूम अदाओं में ...
कितना सादा सा शेर है ... पर दिल को छूता है ... बाकी भी सभी शेर कमाल के हैं ... मेरी दाद कबूल करें दिनेश जी ...
खूब ग़ज़ल हुई है, गिरह भी शानदार लगाई है
बधाई
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