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इस समंदर से कोई सूरज नहा के निकला है..

तुझे देखे अगर कोई जलन होती है सीने में,
सितम के सौ बरस गुजरें मोहब्बत के महीने में,
खुदाया क्या हुआ मुझको ये कैसा बावलापन है,
मैं खुद को जब भी देखूं तू दिखाई दे आईने में।।
----------------------------------
बेमतलब की बात बताने लगते हैं
खुद अपनी औक़ात बताने लगते हैं
नेता हैं वे राजनीति के मंचों से
सीने की भी नाप बताने लगते हैं।।
------------------------------------

अंधेरे घर में वो दीपक जला के निकला है
जिस्म की रूह से पसीना बहा के निकला है
उसमें हाथों को डुबोते ही मैं ये जान गया,
इस समंदर से कोई सूरज नहा के निकला है।।

.

— अतुल कुमार

- मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Saurabh Pandey on July 10, 2014 at 12:35am

भाई अतुल जी, अच्छी कशिश के लिए बधाई लीजिये.  दूसरे मुक्तक में अच्छा तंज़ है. बहुत खूब !

मुझे नहीं मालूम की आई्ने के आ॒ को गिराया जा सकता है.

Comment by atul kushwah on July 6, 2014 at 11:34pm

आदरणीय सर, हौसलाअफजाई के लिए आभार। सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 4, 2014 at 10:33am

अतुल जी

अच्छा प्रयास है i  सराहनीय i

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