For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

सुधीजनो,

दिनांक - 12  मई’ 13 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के अंक -31 की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक मद्यपान निषेध था.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिरभी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर

डॉ. प्राची सिंह
संचालक
ओबीओ लाइव महा-उत्सव

****************************************************************

श्री गणेश जी बाग़ी  
(1) नवगीत  

सुनों परमेश्वर मेरे, अरज इतनी हमारी है,
कभी जाना न मधुशाला, यही विनती हमारी है ।

जो होता धन का ही क्षय
तो कह देती पीयो तुम  
मगर है बात जीवन की
कहूँ कैसे कि छूओ तुम  

लगाओं शौक पर ताला, यही विनती हमारी है ।
कभी जाना न मधुशाला, यही विनती हमारी है ।

गर तुम आज पीते हो,
कल बच्चें भी पीयेंगे ।
यही आधार गर होगा,
फिर बच्चे ही बिगड़ेंगे ।       

हटा दो दाग यह काला, यही विनती हमारी है ।  
कभी जाना न मधुशाला, यही विनती हमारी है ।

ज़हर की बेच कर प्याली   
भला सरकार जीती है ?
फरक उसको नहीं लेकिन  
इधर जनता कहँरती है  

न खेलो मौत का खेला, यही विनती हमारी है ।
कभी जाना न मधुशाला, यही विनती हमारी है ।

सुनों परमेश्वर मेरे, अरज इतनी हमारी है,
कभी जाना न मधुशाला, यही विनती हमारी है ।

(2) कुण्डलिया छंद
मदिरा को विष मत कहो, है ये सुधा समान,
जो सेवन इसका करे, रहता सदा जवान,
रहता सदा जवान, बुढ़ापा पास न आये,
उम्र हाथ में अल्प, उसे यमराज बुलाये,
नाचे सारा गाँव, बजा कर ढ़ोल-मजीरा,
चौतरफा फिर शांति, नहीं भभकेगी मदिरा ।

हाइकू

मद्य-निषेध
लिखना है आलेख
लाओ दो पैग  
****************************************************************

श्री अलबेला खत्री  
(1)छन्द घनाक्षरी
भाई जो शराबी हो तो बोतल के बदले में ग़ैरों बीच घर की कहानी बिक जाती है
साजन शराबी हो तो बोतल के बदले में सजनी के गले की निशानी बिक जाती है
बाप जो पीया करे है मदिरा तो उस घर, फूल जैसी बेटी की जवानी बिक जाती है
मदिरा के नशे में ईमान बिके देखे बन्धु, बिना किसी दाम ज़िन्दगानी बिक जाती है

(2)  कुण्डलिया
दारू की लत लग गयी, जिसको मेरे यार
उखड़ गया जड़-मूल से, उजड़ा सहपरिवार
उजड़ा सहपरिवार,  हुई जग में बदनामी
धन दौलत सब गये, बची नहीं एक छदामी
कुल पर कालिख पुती, हुआ बन्दा बाज़ारू
वह क्या दारू पिये, पी गयी उसको दारू
****************************************************************

कुन्ती मुखर्जी  

मद्यपान निषेध
दो स्वयंसेवकों ने खम्भे पर लगाया बोर्ड
‘ मद्यपान इंसानी सुख सर्वनाशा’
एक शराबी लुढ़कता पड़ता आया ,
जो पीया था वहीं विसर्जन कर दिया .

( उसका घर )
खट ! खट ! ! पत्नी ने खोला दरवाज़ा ,
“गटर का पानी पीकर आ गया महाराजा” ,
‘क्या कहा’ , चटाक ! ‘गाली देती है मुझे ,
अपना पीता हूँ , पीऊँगा ! पीऊँगा !’

( परिणाम )
घर छूटा , बीवी छूटी ,
बिक गयी बिटिया .
( विडम्बना )
वह शराब पीता गया , पीता रहा ,
फिर क्या ?
शराब उसे पीता गया .
जब उसने शराब पीना छोड़ दिया
तब जिंदगी ने उसे छोड़ दिया .

(सीख)
कहो हर कोई आज से , अभी से
मद्यपान निषेध ! मद्यपान निषेध ! !

****************************************************************

श्री सौरभ पाण्डेय  

(1) मद्यपान निषेध
===========
1.
मैं बोतल नहीं
जो शराब भरी होने पर भी शांत रहती है
मुझमें उतरते ही शराब
खुद मुझे हैरान करती है.

2,
आदमी के भीतर
हिंस्र ही नहीं
अत्यंत शातिर पशु होता है
ओट चाहे जो हो
छिपने की फ़ितरत जीता है
तभी तो पीता है.. .

3.
अच्छा खासा रुतबा
और चकित करते रौब लिये
वे हाशिये पर पड़े आदमी के उत्थान के लिए
मिलते हैं...
पर नशा / एक भोर तक
मिलने ही कहाँ देता है ! .

4.
मन के आकाश में खुमार के बादल
अनुर्वर पर बरस
उसे सक्षम नहीं बनाते
उल्टा उर्वर की संभावनाओं को मारते हैं.. . !
फिर,
चीख में जलन
आँखों में सूखा
मन में फ़ालिज़
पेट में आग बारते हैं.. .       [बारना- जलाना

5.
पलट गयी बस का ड्राइवर
बेबस यात्रियों के भरोसे पर
         कहाँ उतरा था ?
वह तो जोश से हरा
होश से मरा
और शराब से भरा था !

(2) दोहे

मय में मादकता घुली कहते वो ही लोग
देही  के वर्चस्व  में   रसना को दें  भोग !

मद्यपान की लत लगी, रहे नहीं परिहार्य --
परंपरा  परिपाटियाँ  धर्म-कर्म  शुभ-कार्य ॥

पग डगमग-डग कर रहे, अस्त-व्यस्त मन-देह
मद का मारा  जी रहा,  शक शुबहा संदेह  ॥

होंठ चढ़ी यदि मय समझ, सुख विश्वास तबाह
आमद-खर्चा लेख में जमा दिखे बस ’आह’  !!

कहते  मानव  जन्म  तो,  बड़भागी को  प्राप्त
किन्तु सुरा की लत करे, फिर से पशुता व्याप्त ॥

मद  मदिरा  की  धार में,  बहते  दीखे  मूढ़  ।
धार लगाये  पार  क्या, भेद  नहीं  यह  गूढ़  ॥

******************************************************

श्री अशोक कुमार रक्ताले    

(1)कुण्डलिया
पीता है जब आदमी, मदिरा के दो घूंट.
बोले मैं हूँ होंश में,समझो बोला झूंठ |
समझो बोला झूंठ, नशा यह बहुत बुरा है,
देवों को भी दैत्य, करे यह वही सुरा है,
होता घर बर्बाद, रहे पर  प्याला रीता,
हर  प्राणी मुँह बाय, मनुज पर मदिरा पीता ||

लाखों देखे  आदमी, मदिरा के शौकीन,
सारे असमय हो गए, पंचतत्व में लीन,
पंचतत्व में लीन, सभी की यादें बाकी,
टूटे से कुछ जाम, बिलखता देखा साकी,
विष का ही इक रूप, मदिरा ध्यान ये राखों,
लखपति बने फ़कीर, आदमी देखे लाखों ||

(2)नवगीत
शाम ढलते याद आती रंग बोतल जाम की,
हो  गया बस ये नियम सा, पीयें चाहे नाम की,

कोई पीकर झूमता मद,
कोई नाली में पडा,
कोई गिरने से बचा है,
कोई खुद ही गिर पडा,

क्या कहें किससे कहें हम,
है न मदिरा काम की |    शाम ढलते याद ..........

घर था मंदिर के सरीखा,
मद से मदिरालय हुआ,
बीवी बच्चे  साथ रोये,
भीगा आंचल नम हुआ,

झूमता मदमस्त पीकर,
सुध न लेता वाम की | शाम ढलते याद ..............

अधमरा सा हो गया अब,
तन भी दुर्बल सा हुआ,
पेट की व्याधि ने घेरा,
मौत का कारण हुआ,

बीवी बच्चे हैं सड़क पर,
सब कहें बदनाम की | शाम ढलते याद ..............

छोड़ देता गर सुरा यूँ,
हाल होता ना कभी,
ना तड़पते बीवी बच्चे,
ना ही मरता खुद अभी,

मद बुरा है हर तरह का,
सच कसम श्री राम की | शाम ढलते याद .............

(3) मत्तगयन्द सवैया

जीवन पाकर मानव का प्रभु मानव ही पशुता दिखलाए,

नित्य पिए मदिरा डटके अरु वाम क साथ जबान लड़ाए,

पाय नहीं जब एक छदाम-छदाम कि खातिर हाथ उठाए,

शान मिटा कर मान गँवाय  डुबोकर नाम सदा पछताए ||

 

मद्य करे कमजोर शरीर नहीं बल देउत भीम लखाए,

तेज घटे अरु रोग लगाय सुरा बिन मानव रे बल खाए,

मित्र सखा सत संगत छोड़ शराब पिए अरु धूम मचाए,

चाह करे पर मुक्ति न पा धर कंठ प्रभो उठ बैठ लगाए ||

 

देश लड़े सरकार लड़े अरु वाजिब मद्य निषेध बताएं,

लेख लखें कर की गणना कर शाह शराफत भूलहि जाएं,

पाय मरे विष की मदिरा जन शासन के जन देख न पाएं,

नित्य जलें तन भूख सताय गरीब मरे परिवार जलाएं  ||


******************************************************

श्री सत्य नारायण शिवराम सिंह

(1)  विधा :- मनहरण घनाक्षरी
विधान :- १६,१५ वर्ण पर यति चरण के अंत में गुरू

शास्त्र अर्थशास्त्र सभी, ज्ञानी गुणवान कहें।
सदा ही अहितकारी, मद्यपान करना।।

तन मन धन जन, सभी का विनाश करे।
मद्यपान मानव का, चूर करे सपना।।

मन को डिगाये और, तन को हिलाये सारे।
करे है विश्वास ह्रास, बचे साख जग ना।।

मद्यपान कर नर, नारी का जो मान हरे।
ऐसे मनुजो की होती, असुरों में गणना।।

(2)  मुक्तामणि छंद ( 13+12) अंत में दो गुरु

शोरशराबा बढ़ रहा, धर्म कर्म में माना।

समाज शिष्टाचार का, मद्यपान पैमाना।।

हों प्रतियोगिक खेल या, फिर चुनाव से पंगा।

मादक द्रव्य करा रहे, जीत सुनिश्चित जंगा।।

राजस्व लोभ का लगा, सरकारों को रोगा।

नशा मुक्ति के नाम पर, दो कौड़ी का जोगा।।

तन मन को शोषित करे, पोषित हों हर दोषा।

नशा चित्त कलुषित करे, मन उपजावे रोषा।।

शासन अनुशाशित नहीं, नियम हो रहे भंगा।

शासक मिलकर लूटते, मद्य माफिया संगा।।

व्यसनयुक्त जीवन सदा, लगता नरक समाना।

व्यसनहीन जीवन जियें, तज दुख सब अपमाना ॥

******************************************************

श्री केवल प्रसाद  

(1)  दोहे

मद्य निषेध सबहि कहें, करते नहि परहेज।
उत्तम गति कैसे मिेले, रोग लगा तन तेज।।1

तम्बाकू गुटखा कहे, मुझको खा कर देख।
गले में फॅस जाऊंगा, बनकर कैंसर रेख।।2

ताम्बूल कत्थ चून से, होता मुख अस लाल।
लाल-लाल की चाहना, खा जाएगा काल।।3

मदिरा मन का रोग है, रोज सांझ पगलाय।
तन मन छिन्न खिन्न रहे, पीकर तब बौराय।।4

नैया है मझधार में, नशा हुआ तूफान।
अब तो जान बचाय लो, करो पाप का दान।।5

(2) दुर्मिल सवैया
    112, 112, 112, 112, 112, 112, 112, 112

मदिरा तन नाश करे इतना, ध्रुम पान अफीम नशा जितना।
अतिपाय न पाय दुखी रहना, मन मान मरै नित सोच मना।।
जब शंकर पाय हलाहल तों, जन जीव अजीव डरे कस ना।
सब देव कहे यह बात तभी, अब तो महदेव रहे जग ना।।1

सब रोग ग्रसे अति दोष लगे, जब लोग कहें यह पाप करे।
अपनी बिटिया सपना ममता, अस हाय कहें नित रोज डरे।।
न शराब छुए नहि क्रोध करे, नहि भांग धतूर नशा सगरे।
हटके बचके नित रोज तरे, अति पावन नाम जपे मन रे।।2

(3)कुण्डलियां

मदिरा ऐसी चीज है, तुरतै आपा खोय।
जन्मो का सुकर्म जले, धर्म हीन तब होय।।
धर्म हीन तब होय, लजाय कुटुम्ब कबीला।
बच्चे बहु शरमाय, मन नहीं धरैं रूबीला।।
घर-घरनी भरमाय, झगड़ा करे बन बधिरा।
आंखें ही खुल जाय, जान जब लेती मदिरा।।

किरीट सवैया-211,211,211,211, 211,211,211,211

नाहक नाम नशा बदनामहि, शाम शमा सम रोशन जानहि।
काम करे अति खूब सतावहि, मान समान थकान मिटावहि।।
मानत है नहि बात मनावहि, मादकता अधिकाय लजावहि।
सुन्दर रूप लगे अतिपावन, पांय पखार पिए जन राजहि।।1

मादक तत्व असत्य सुभावत, लाज हया नहि काम लुभावत।
नीच कुलीन सुप्रीत लुकावत, रास विहास रसे अस सांवत।।
आफिस हाट समाज दुरावत, लोक सुलोक जरे नहि पावत।
नालिय के कर कीट बुलावत, दोष बलाय शराब कहावत।।2
******************************************************

श्री अरुण कुमार निगम

(1) मद्यपान निषेध के दोहे :

पिया ! पिया  क्या  आपने , रतनारे  हैं नैन
बहकी - बहकी  चाल है, समझ न आवै बैन |1|

सजना सजना छोड़ कर,व्यथित हुई दिन रैन
बाबूजी हैं अनमने,  सासू  माँ   बेचैन |2|

तन्मय मय में हो गये, तन-मन दोनों स्वाह
दारू - भट्ठी खा गई , सौतन - सी तनख्वाह |3|

ना पी भाई ! छोड़ दे , कर घर की परवाह
लाखों ने कम उम्र में , नापी जीवन-राह |4|

हल्के - हल्के पी गया , अल्कोहल – हैवान
हल कोई अब ढूँढिये, मिलजुल कर श्रीमान |5|

घर-मंदिर को भूल कर,मदिरालय से प्रीत
सजनी को सदमा लगा, बच्चे हैं भयभीत |6|

पीने से घटता नहीं ,  बढ़ता है संताप
कहा बुजुर्गों ने सदा, मदिरा पीना पाप |7|

******************************************************

श्रीमती कल्पना रामानी

हावी है मदिरा का प्याला - नवगीत

चीखें, रुदन, कराहें, आहें,
घुटे हुए चौखट के अंदर।
हावी है मदिरा का प्याला,
कितना हृदय विदारक मंजर!
 
गृहस्वामी का धर्म यही है,
रोज़ रात का कर्म यही है।
करे दिहाड़ी, जो कुछ पाए,
वो शराब की भेंट चढ़ाए।

हलक तृप्त है, मगर हो चुका,
जीवन ज्यों वीराना बंजर।

भूखे बच्चे, गृहिणी पीड़ित,
घर मृतपाय, मगर मय जीवित।
बर्तन भांडे खा गई हाला,
विहँस रहा मदिरा का प्याला।

हर चेहरे पर लटक रहा है,
अनजाने से भय का खंजर।

काँप रहे हैं दर- दीवारें,
कौन सुनेगा किसे पुकारें।
जनता के हित कहाँ हुआ कुछ,
नेता गण जीतें या हारें।

हड़तालें हुईं, जाम लगे पर,
कुछ दिन चलकर थमे बवंडर।

दीन देश की यही त्रासदी,
नारों में ही गई इक सदी।
मद्यनिषेध सजा पन्नों पर,
कलमें रचती रहीं शतपदी।

बाहर बाहर लिखा लाभ-शुभ,
झाँके कौन घरों के अंदर।
******************************************************

श्री मती राजेश कुमारी  

(1)    [दुर्मिल सवैया = सगण X 8]

मदपान निषेध यहाँ कबसे बस कागज़ में सिमटा दिखता |
सरकार भले दिन रात रटे उसका मन तो भटका दिखता|  
वह पीकर भूल गया उसका घर  बार गिरा मिटता दिखता|  
घर छोड़ किसी मदिरालय में गिरता पड़ता मरता दिखता |  

(2)एक पैरोडी (भुला नहीं देना जी भुला नहीं देना )

पीने नहीं देना जी पिला नहीं देना
ये पीना ख़राब है जीने नहीं देगा जी जीने नहीं देगा
हूक  सी दिल में उठने लगी है
मय पीने को मचलने लगी है
देखो जिगर को जला  नहीं लेना
ये पीना ख़राब है जीने नहीं देगा जी जीने नहीं देगा

इस दारु ने सबको सताया
तन से भी धन से भी मिटाया
अपनी खुशियाँ मिटा नहीं देना
ये पीना ख़राब है जीने नहीं देगा जी जीने नहीं देगा

मंदिर कम मय खाने बड़े  हैं
देश मिटाने को ये खड़े   हैं
देश की किस्मत डुबा नहीं देना  
ये पीना ख़राब है जीने नहीं देगा जी जीने नहीं देगा

आज तू इस  बोतल को  नचाये
कल ये बोतल तुझको नचाये
नजरों में खुद को गिरा  नहीं लेना
ये पीना ख़राब है जीने नहीं देगा जी जीने नहीं देगा

पीने नहीं देना जी पिला नहीं देना
ये पीना ख़राब है जीने नहीं देगा जी जीने नहीं देगा
******************************************************

श्री अरुन शर्मा 'अनन्त'
(1) ग़ज़ल:

बह्र : मुतकारिब मुसम्मन सालिम (१२२, १२२, १२२, १२२)

कदम डगमगाए जुबां लडखडाये,
बुरी लत ये मदिरा बदन को लगाये,

न परवाह घर की न इज्जत की चिंता,
नशा यूँ  असर सिर्फ अपना दिखाये,

शराबी - कबाबी- पियक्कड़ - नशेड़ी,
नए नाम से रोज दुनिया बुलाये,

सड़क पे कभी तो कभी नालियों में,
नशीला नशा दोस्त अक्सर गिराये,

उजाड़े है संसार हँसी का ख़ुशी का,
मुहब्बत को ये मार ठोकर भगाये .....

(2)  विधाता छंद (यगण+गुरु) X 4

बिमारी ये लगाती है कलेजा ये जलाती है,
बुलाती है तबाही को जनाजा भी उठाती है,
बना प्यारा घरौंदा प्यार का दारु मिटाती है,
भलाई से बचाती है बुराई में फंसाती है,
******************************************************

श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा  

(1)
जहर  है नशा जिन्दगी के लिए
खत्म करता इसे सदा के लिए
--------------------------------
जरूरी नही नशा शराब में हो
जरूरी नही नशा शबाब में हो
नशा जीवन के हर दस्तूर में है
ये निर्भर हमारी सोच पर है
नशा किस हाल में मंजूर है
जरूरी नही आदमी के लिए
जहर  है नशा जिन्दगी के लिए
खत्म करता इसे सदा के लिए
-----------------------------------
पीता मद भरे नयनों से कोई  
पसंद छल किसी को साफगोई
लूटता जनता देख सोई  हुई
चाह्त कुर्सी की भी इक है नशा
हँसता देख अब कौन है फंसा
दिल नहीं मानव भलाई के लिए
जहर  है नशा जिन्दगी के लिए
खत्म करता इसे सदा के लिए
------------------------------------
काम क्रोध लोभ मोह भी नशा
जीवन चक्र सारा इसमें फंसा
सुर असुर  भी न इनसे बचा
लड़ लड़ नित नव इतिहास रचा  
पीते वही लाचार बे बस हैं
दीमक है आम आदमी के लिए
जहर  है नशा जिन्दगी के लिए
खत्म करता इसे सदा के लिए
-------------------------------
पीना बुरा है पिलाना बुरा है
शराब एक दुधारा  छुरा है
मानो सच में  पीना खराब है
उजड़ते हैं घर और ख़्वाब  हैं
पीना मत गम और खुशी के लिए    
शराब जहर है बंदगी के लिए
जहर  है नशा जिन्दगी के लिए
खत्म करता इसे सदा के लिए
---------------------------------
(2)

अंधियारे मा जुगनू चमके नारी  बीडी रही सुलगाय
सूखा छुआरा सी देहीं ले कुपोषित बच्चा जनती जाय
मरद अखाड़े ताल ठोंके  खैनी पीट पीट वो खाय
आइसक्रीम भली न लागे  ताम्बूल  गुटखा रहे चबाय
जस शरीफा दीखे  बजरिया मुख का  कैंसर होवत जाय
पचका  कनस्तर  अस तस माफिक  पेट पीठ मिल एक हो जाय
थाली मा जस बैंगन लुढके पी कर इधर उधर लहराय
जस नगनिया  चले सडक पर  बिल मा सीधे सीधे जाय
रेल इंजन भक भक दौड़े नथुना  धुँआ छोडत जाय
दमडी जस प्यारी लोभी को सरकार यों रही पगलाय
कथनी करनी  अंतर ईके मद्द निषेध विभाग खुलवाय
दूकान मां राशन न मिलता दारु अड्डा रही खुलवाय
सावन मा  देखे हरियाली अस  अन्धरन अब कवन उपाय
नशा बुरा बहुत इसे  जानो जल्दी पीछा लेयो छुड़ाय
खुद सुखी रहे परिवार सुखी मूल मन्त्र अब लीजियो आय  

(3)
जाने क्यों लोग
नशा किया करते हैं
स्वर्ग के बदले
नर्क जिया करते हैं
------------------------------------
दूध पीते थे
मलाई खाते थे
नाना प्रकार  
सुख भोग  करते थे
शराब पीते हैं
भांग खाते हैं
अपने शरीर का  
नाश करते हैं
---------------------------------------------
गांजा  पीते हैं
पान खाते  हैं
मिले अफीम चरस
न घबरातें हैं
गम भूल जाने  की
है माकूल दवा
बड़े प्यार से  
मद्य पान करते हैं
--------------------------------------------------
गुमनाम होते हैं
बदनाम होते हैं
लड़ते झगड़ते हैं
कत्ले आम होते हैं
चमक चली जाती
उधार  लेते हैं
चूल्हा नहीं जलता
घर शमशान  होते हैं
------------------------------------------------------------
रिश्ते टूट जाते हैं
दरार आ जाती है
कौन  बेटी कौन  बहू
समझ चली जाती है
अपराध करते हैं
निर अपराध मरते हैं
थोड़ी खुशी जीवन की
बेवजह स्वाह करते हैं  
----------------------------------------------------------------
पीना छोडो अब
जीना शुरू करो
भाग्य तट अपने
करमन मोती भरो
धुंध छंट जायेगी
अरुणायी छायेगी
सुखी जीवन हेतु  
मद्द निषेध मन्त्र
नित जपा करते हैं
******************************************************

श्री लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला  

(1)

उसको कहना मधुशाला

होश गवांता मनुज जहाँ, उसे न कहते मधुशाला, |

हरदम छलकत जाम जहाँ, गिर पड़ते लेकर प्याला|

तन को जो छलनी करदे , मद में वह विष पान करे,

मद्यपान कर बेसुध हो, मयखाना बदनाम रहे |

इंसाँ से हैवान बने, मधुशाला नहि वह हाला,

मन मुग्ध करे मनुज को,उसको कहना मधुशाला | 

 

छलकत है जाम सुरों से, हम कानों से पान करे,

कर्णप्रिय रसिक श्रोता सब, वाह वाह करे दाद भरे

घर भर सबके साथ चले, हँसते खिलते बात करे,

छोटे-बड़े सब हो साथ, मन ना लज्जा ध्यान धरे|

कविता में गर मिठास है, तृप्त करे यह अमृत प्याला,

मन मुग्ध करे मनुज को,उसको कहना मधुशाला | 

 

सुर को असुर बनाता, इंसाँ को हैवान करे,

विषपान जहाँ भी करते, मधुशाला क्यों नाम धरे |

मद्यपान निषेध करदे, जपता मै ये निज माला,

मधुर भरे शब्द पिलादे, आतुर है मन की ज्वाला |  

हँसा हँसा लोट पॉट करे, वही रस भरी मधुशाला,

मन मुग्ध करे मनुज को,उसको कहना मधुशाला |


(2) कुंडलियाँ

युवको का पीकर नशा, सत्ता दे ना ध्यान,

जहर बेच कर काम दे, रोजगार का भान

रोजगार का भान, दिनो दिन संख्या चढ़ती   

आमद की ये खान,नित दिन आमद बढती  

दो युवको अब ध्यान,मदिरा पीकर न भटको,

रहे देश का मान, सवरे देश हे युवको  |

(2)

घर में नयन मद मधुरम, उसका रखना मान,

मद्यपान में अल्प मद, रहे न तन का ध्यान|

रहे न तन का ध्यान, मद में तन्मय हो रहे,

बेटी की ना परवाह, कष्ट  भोगते सब रहे |

समझे ये सरकार, स्थाई आय नहि इसमें,

युवक हो होनहार, बढे खुशहाली घर में |

(3)

खुशहाली घर में  घटे, अरु समाज में मान,

आय घटे, न मान बढे, घटे देश की आन|

घटे देश की आन,व्यथित रहती सब जनता, 

मदिरा करे निषेध, उद्यम सभी का बढ़ता |

सम्रद्धि जब बढ़ जाय, छाने लगे हरियाली,

मदिरा से क्या पाय, छिनती रहे खुशहाली|

 

(3) क्यों खोले गठजोड़ (दोहे)

योगी भोगी हो गया, करता मदिरा पान
रहाँ नहीं वह आदमी, खोई सब पहचान |

मदिरा पीने आदमी, धन की करे जुगाड़ ,
अपने तन को कर रहा, खुद ही काठ कबाड़ |

गंगाजल को छोड़ कर, करता मदिरा पान,
तन को नित ही छेदता, घरवाले हैरान |  

पीने से बढ़ता रहे, घर भर में संताप
रक्त चाप के फेर में,करता रहे विलाप |

मदिरा में डूबा रहा, रोती लक्ष्मी छोड़,
कसमे वादे तोड़कर, क्यों खोले गठजोड़ |

मयखाने में मिल रहे, इक दूजे से मीत
मद्यपान पीकर करे, आपस में सब प्रीत |

जुआघर में ढूंढे से, मिल जाएगा मीत,
रात रात लिखता रहा,गम के ही सब गीत|
******************************************************

डॉ. प्राची सिंह  

पैंडुलम की टक टक के साथ
गहराती जाती रात ,
राजाजी मार्ग
ब्रिटिश हाई कमिश्नर
हिज़ एक्सीलैन्सी का बंगला
शाही आयोजन,
चुनिन्दा वैज्ञानिकों
प्रतिष्ठित प्रोफेसरों
मात्र को निमंत्रण ,

चर्चा: राष्ट्र हित में शोध,
पर, कैसा अवरोध?
महकती रजनीगन्धा
जगमगाती मोमबत्तियाँ,
शाही बैरे
शालीनता से ट्रे में सजाये
तरह तरह की विदेशी मदिरा जो लाये,
देख छलकते प्याले

प्रतिष्ठा, सद्विवेक, बुद्धि
उफ्फ! इतना भार !!
कोई कैसे सम्हाले ,
सभ्य व्यक्तित्व
सद् चरित्र ......!!!!!
गिरते मुखौटे
होते संदिग्ध,
कुंठित विवेक

लड़खड़ाते कदम
ढूँढते सहारे
बेबस बेचारे,
थे हृदय से पूजनीय
क्या ख़ाक सम्माननीय ?
अपूरणीय क्षति!!!!!!
क्या उठेंगे कभी नज़रों से ?
******************************************************
 
श्री बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज)

 (1)

हर सांस यहां अटकी भटकी
फिर भी प्यारी यह मधुशाला
कितने जीवन बरबाद हुए
आबाद रही पर मधुशाला

साकी के नयनों से छलकी
चमकी दमकी सी मधुशाला
पत्नी का वैभव चूर हुआ
जब रंग चढ़ी ये मधुशाला

बिसरी बच्चों की भूख प्यास
बस याद रही यह मधुशाला
मां बाप लगे दुश्मन जैसे
अहसास बनी यह मधुशाला

रिश्ते नाते सब छूट गए
जब साथ चली ये मधुशाला
दुनिया से भी वैराग हुआ
मन प्राण बसी यह मधुशाला

घर बार बिका धन दौलत भी
सम्मान ले गयी मधुशाला
कुछ ऐसा इसका नशा चढ़ा
यह देह पी गयी मघुशाला

(2) सुन्दरी सवैया = सगण X 8 + गुरु
हमरे मन तौ पिय आन बसे, मन वास करे उनके मधुशाला
हम बांट निहारत हौं जिनकी, उन नैन बसा मधु का यह प्याला
कइसे मनुहार करौं सजना, विष पान समान तजो यह हाला
टिकुरी अस माथ सुहात रहे, नहि साथ छुटे तजि दो मधुशाला
 
इक बार जबै यह देह चढ़ी, चढ़िकै सिर बोलत है यह प्याला
मन राग विराग से बेसुध सा, इक रंग चढ़ा बस ये मधुशाला
घर बार गया सब मान गया, तबहूं नहिं छूटत है यह हाला
कछु भूख पियास न याद रही, जस याद रहा मधु का यह प्याला

(3)  अवधी गीत
कइस हुइ गयल फैशनवा राम
नशा मा डूबा जमनवा राम

घरै क सुधि नाहीं
झूमै मगन हुई
साकी से नेहा
पत्नी बिसरि गई
लरिका हुइ गय बेगनवा राम
नशा………….

बोतल मा खुद का
ई डुबाय दीन्ही
पइसा कौड़ी सब
ई लुटाय दीन्ही
दर दर भटिकै इ मनुजवा राम
नशा……………………..

गटक जब लीन्हा
तौ सिर चढ़ बोलै
रोवै मुस्काए
अउ बर बर बोलै
नागिन स लहिरे बदनवा राम
नशा………………….

पहिले तो सबका
बहुत नीक लागै
ई सगरी दुनिया
बहुत फीक लागै
ई तौ निगल गयी तनवा राम
नशा……………………..
******************************************************
श्रीमती शशि पुरवार  

नवगीत   

लगी है ये कैसी अगन
घर द्वार भूल कर
पीने में रम गया है मन .

मीठे गरल का प्याला
उतरा हलक में
फिर लाल डोरे खेल
रहे थे पलक में
मुख में बसी फिर गालियाँ
सड़क पे ढुलक रहा तन .

घर द्वार भूल कर
पीने में रम गया है मन .

मधुशाला में रहकर
आबरू गवाँई
वो चुपके से पी गयी
सारी कमाई
छुट गए रिश्ते नाते
शुरू हो गया है पतन .

घर द्वार भूल कर
पीने में रम गया है मन .

मधु में नहाकर होठ
हो गए है काले
हलक से नहीं उतरते
है फिर निवाले
घुल गयी सुरा साँसों में
अब खो रहा है जीवन .

घर द्वार भूल कर
पीने में रम गया है मन .
******************************************************

श्रीमती गीतिका 'वेदिका'

मनोरमण छंद सोलह मात्राओं से बनता है

कहने में सकुचाय सुमनिया
पियो जो दारू प्यारे पिया
जले गृहस्थी संग जले जिया
दारू ने सर्वस्व है लिया

दवा नही रे  है ये  दारू
है ये सब घर बार बिगारु
बर्बादी पे भये उतारू
तुम नस्सू हम जीव जुझारू
******************************************************
 
श्री विजय निकोर

अर्थहीन प्रश्न
गिरते-पड़ते नशे के दौर में चूर जब
असत्यों से घिरे तुम लौटते थे घर,
प्रतिपल तुम्हें आश्रीर्वाद देती
माँ करती थी विनती तुमसे,
" बेटा, मत पीया करो मदिरा,
तुम और न पीया करो।"

अब माँ नहीं रहीं, और मैं.. तुम्हारे संग
इस अधबनी दर्दभरी ज़िन्दगी को जीती
मैं तुम्हारे बच्चे की माँ हूँ, मैं कहती हूँ,
" तुम्हें तुम्हारे इस बेटे की शपथ है,
मद्यपान न करो, जीओ और जीने दो।"
पर कब माना तुमने, कब मानोगे तुम,
बेटे की शपथ का कर्ज़ भी न मानोगे?

मद्यपान के लिए कल कैसे तुमने
छुपकर मेरे हाथ की चूड़ियां भी बेच दीं ?
और घर आकर झूठ बोल दिया मुझसे ?
सच, तुम दे सकोगे मुझको जवाब क्या
सदियों के छ्टपटाते इस अर्थहीन प्रश्न का,
"आखिर क्यूँ, .. आखिर क्यूँ,..., क्यूँ.., क्यूँ ?

आज जब सड़क पर तुम्हारी कार से
उस गरीब बुढ़िया को टक्कर लगी,
उसकी बगल से बच्चा, और
सिर से सब्ज़ियों की टोकरी थी गिरी,
उसे पैसों का बंडल देकर उसकी
चोट का मोल तो झट चुका दिया,
पर अब अपने बेटे की आँखों में देख,
मेरे हृदय की चोट का मोल
सच, तुम चुका सकोगे क्या ?
******************************************************
 
श्रीमती सीमा अग्रवाल
नवगीत

चल चले ओ मीत
अब उस ठौर
जीवन है जहाँ

नेह के अनुबंध सारे
खुल रहे हैं
टूट कर
मय के प्यालों में
सिसक कर घुल रहे हैं
रूठ कर

रात रानी से मधुर
उन्वान हम
फिर से लिखेंगे
बस चलो उस ओर
संग तुम
प्रीत बंधन है जहाँ
 
चल चलें ओ मीत ......................

बह गया हर ख्वाब
बचपन का
मदिर सैलाब में
जल रही उम्मीद
बूढी आँख की
तेज़ाब में  

आस के चौरे पे
ममता का अरुणमय  
दीप बाले
देख लो
इक क्षण उधर भी
माँ का क्रंदन है जहाँ

चल चलें ओ मीत ......................

Views: 3217

Reply to This

Replies to This Discussion

प्रिय प्राची जी सब रचनाओं का संकलन करने जैसे श्रम साध्य कार्य हेतु हार्दिक आभार इस बार तो आधी रचनाएं ही पढ़ पाई थी एक तो नेट प्रोब्लम और दूसरे  कुछ मुख्य कामो में लगी हुई थी आज थोड़ी राहत मिली अतः सबकी रचनाएं अब आराम से इस पोस्ट पर ही पढूंगी सीमा जी का नव गीत अभी पढ़ा बहुत पसंद आया उनको बधाई इस सुन्दर प्रस्तुति पर । 

सही कहा आपने आदणीया राजश कुमारीजी, पिछले पाँच-छः दिनों में नेट ने जितना रुलाया है कि क्या और कोई इतनी धृष्टता कर सकता है !

आपकी उपस्थिति वास्तव में कई-कई रचनाकारों के लिए प्रेरणा का कारण है.

सादर

आ0 अरून निगम सर जी,..‘उपसंहार:
रचनाओं का संकलन, पल भर में तैयार।
कुशल मंच संचालिका, प्राची जी आभार।।‘ बहुत ही शानदार और लय बध्द आभार, अतिसुन्दर सम्पूर्ण रचनाओ और कुल कवियो की संख्या आदि का विस्तृत विवरण का उल्लेख आपकी कला में मां शारदे का वरदान स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। आपको शत शत नमन! तथा समस्त प्रस्तुतियों को एक साथ सुन्दर थाली में परोसने हेतु आ0 प्राची मैम एवं गुरूवर सौरभ सर को तहेदिल से हार्दिक बधाई ! सादर,

आपका हार्दिक आभार भाई केवल प्रसाद जी. ..

वाह बहुत शानदार रहा आयोजन , रचनाओं की विविधता और अप्रतिम भाव भूमि चित्ताकर्षक है । एक से बढ़कर एक नवगीत , छंद , कुण्डलियाँ .. वाह साहित्य अपने सम्पूर्ण रूप में ओ बी ओ पर अठखेलियाँ कर रहा है ..आदरणीया संचालिका डॉ प्राची जी सहित समस्त  को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !!

काव्य-महोत्सव के इस अभिनव आयोजन में जहाँ पद्य की हरतरह की शैली स्वीकार्य है, आपकी अहम उपस्थिति बहुत खली है, भाई अभिनव अरुणजी.

आपका समयाभाव हमसभी को प्रतीक्षित रखा. आप समझ सकते हैं आपकी रचनाओं के प्रति हम कितने आग्रही हैं ! साथ ही, मेरे भाव आपके प्रति हमारा आदर युक्त स्नेह के परिचायक भूई हैं.

शुभम्

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .प्रेम
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभार आदरणीय"
4 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .मजदूर

दोहा पंचक. . . . मजदूरवक्त  बिता कर देखिए, मजदूरों के साथ । गीला रहता स्वेद से , हरदम उनका माथ…See More
18 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सुशील सरना जी मेरे प्रयास के अनुमोदन हेतु हार्दिक धन्यवाद आपका। सादर।"
18 hours ago
Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
yesterday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक ..रिश्ते
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार आदरणीय"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"आ. भाई आजी तमाम जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। उत्तम गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on AMAN SINHA's blog post काश कहीं ऐसा हो जाता
"आदरणीय अमन सिन्हा जी इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें। सादर। ना तू मेरे बीन रह पाता…"
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service