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ग़ज़ल : इश्क जब इम्तेहान लेता है

मिसरों का वज़्न : २१२२ १२१२ २२ (११२२ १२१२ २२ की छूट ली जा सकती है)

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अच्छे अच्छों की जान लेता है

इश्क जब इम्तेहान लेता है

 

बात सबकी जो मान लेता है

छोड़ सबकुछ मसान लेता है

 

वही जीता है इस नगर में जो

बेचकर घर दुकान लेता है

 

फन वो देता है जिसको भी सच्चा

पहले उसका गुमान लेता है

 

ये निशानी है खोखलेपन की

खुद को खुद ही बखान लेता है

 

जब भी लगता है रोग पैसों का

सबसे पहले थकान लेता है

---------------------------------------

(स्वरचित एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 25, 2013 at 7:33pm

शुक्रिया rajesh kumari जी, स्नेह बना रहे

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 25, 2013 at 7:33pm

शुक्रिया बृजेश कुमार सिंह जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 25, 2013 at 7:33pm

शुक्रिया अरुन शर्मा 'अनन्त' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 14, 2013 at 6:58pm

बहुत बहुत धन्यवाद संदीप साहब

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 14, 2013 at 6:57pm

बहुत बहुत धन्यवाद विन्ध्येश्वरी जी,

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 14, 2013 at 6:56pm

बहुत बहुत धन्यवाद केवल साहब। यहाँ मेरा अर्थ था कि यदि आप सबकी बात मानकर कुछ खरीदने जायेंगे तो श्मशान ही खरीदना पड़ेगा इसलिए अपना दिमाग लगाना बहुत आवश्यक है। अर्थ आप तक नहीं पहुँचा इसके लिए क्षमा करें।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 14, 2013 at 6:54pm

बहुत बहुत शुक्रिया बागी जी, मसान से मेरा अर्थ श्मसान ही है। इस विस्तृत टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद स्नेह बना रहे।


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Comment by rajesh kumari on April 13, 2013 at 7:15pm

बढ़िया ग़ज़ल लिखी है धर्मेन्द्र जी दाद कबूलें 

Comment by बृजेश नीरज on April 12, 2013 at 7:12pm

बहुत सुन्दर रचना!

Comment by अरुन 'अनन्त' on April 12, 2013 at 5:13pm

मस्त मस्त मस्त मस्त भाई जी लाजवाब सुन्दर छोटी बहर में कहर बरपा दिया आपने, सभी के सभी अशआर लाजवाब है पर खास इनके वास्ते कुछ ज्यादा दाद कुबूल फरमाएं.

अच्छे अच्छों की जान लेता है .... वाह जी वाह क्या मतला हुआ है

इश्क जब इम्तेहान लेता है

 

ये निशानी है खोखलेपन की

खुद को खुद ही बखान लेता है

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