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प्रिय मित्रो,

बहुत व्यथित होता है मन जब युवा पीढ़ी को बिना सोचे समझे एक ऐसे रास्ते को चुनते देखता है, जिस पर बिछे काँटों वो स्वयं देख कर भी अनदेखा करते हैं.

ये सच है कि अपना जीवन साथी स्वयं चुनने का अधिकार सभी युवाओं को है, पर जीवन साथी चुनना एक बहुत बड़ा फैसला है, जिसे सिर्फ भावावेश में नहीं लेना चाहिए. विवाह के लिए सही साथी का चयन एक ऐसा कदम है जिसे बहुत ही सोच समझ कर लिया जाना चाहिए.

प्रेम विवाह में आगे जाने का रास्ता जितना स्वप्निल प्रतीत होता है, असल में उतना ही चुनौतियों भरा होता है, क्योंकि जिसे युवा प्रेम की पराकाष्ठा समझ कर कसमें खाते हैं, भविष्य के स्वप्न बुनते हैं, असल में वो उनकी ही कमजोरियों को मिला क्षणिक सहारा होता है, जिससे उन्हें क्षणिक राहत मिलती है, जिसे वो प्रेम समझ बैठते हैं.

ये सच है कि ज़िंदगी बहुत खूबसूरत है, और हमें हर कदम पर बहुत अच्छे लोग भी मिलते हैं, जो हमारे मन को गहराई से छू जाते हैं, पर यह प्यार तो नहीं कि किसी ने हमारे साथ दो-चार बार अच्छा किया तो हम अपनी ज़िंदगी उसके नाम कर दें, ख़ास तौर पर लडकियां ऐसी ही भावुक होती हैं, जो सामान्य अच्छाइयों को भी अपने कोमल मन में प्यार का नाम देने की गलती करती हैं. फिर साथ घूमना, छोटी-छोटी बातों को आपस में बांटना, और अपनी सोच को इतना ज्यादा प्रेम केन्द्रित कर देना कि प्रिय की हर बड़ी से बड़ी अस्वीकार्य बात को भी बिलकुल छोटा सा  समझने लगना और प्रिय का एक हद तक अन्धानुकरण और अंधविश्वास करने लगना. फिर ऐसे ही भावनाओं के आवेश में आकर जाति, धर्म, रीति रिवाज, रहन-सहन के फासलों, भाषाई विलगताओं, जीवन स्तर, मानसिक सोच की समानता, सबको दर किनार कर आपस में विवाह का फैसला ले वचनबद्ध हो जाते है. यह सब कितना स्वप्निल और प्यारा लगता है उन्हें.....

लेकिन जब विवाह संस्था में कदम रखने की बात आती है तो सामने होते हैं दो पूरे परिवार. जहां माता पिता, हितचिन्तक साफ़ साफ़ देख पाते हैं काँटों भरा रास्ता...... ऐसे में माता पिता भी दुश्मन नज़र आते हैं, कुछ उदाहरण देती हूँ:

१.      एक मलयालम भाषी दक्षिण भारतीय निम्नवर्गीय सांवला मांसाहारी ईसाई लड़का और एक उत्तर-भारतीय उच्चवर्गीय बहुत गोरी शाकाहारी हिंदु लडकी यदि एक दूसरे से शादी का वायदा करें  तो कैसे उनके माता पिता उन्हें खुशी खुशी इजाज़त दे दें..? कैसा होगा भविष्य ?

२.      एक बहुत पढी-लिखी, उच्चवर्गीय, समाज भीरु, मर्यादित परिवार की ब्राह्मण लड़की यदि अपने से ५ वर्ष छोटी आयु के विजातीय निम्नवर्गीय, कम पड़े लिखे लड़के से , जो किसी भी रूप में उसकी प्रतिभाओं के सामने कहीं खडा नहीं होता, और न ही कोई अच्छी नौकरी करता है... कैसे उनके माता पिता उनके विवाह को स्वीकृति दे दें.

ऐसे में न तो युगल, एक दूसरे को अपने परिवार वालों के सामने लाने की हिम्मत कर पाते है, और ना ही वो एक दूसरे को धोखा देना चाहते है. मन ही मन उनके मन में हीन भावना होती है, वो जानते हैं कि ये चयन गलत है, उनके माता पिता कभी स्वीकृति नहीं देंगे, पर वो सच को अनदेखा करते हैं, एक अंतर्द्वंद से गुज़रते हैं..... माता पिता के द्वारा जब विवाह के लिए अच्छे-अच्छे रिश्ते आते हैं तो वो उन्हें ठुकराते जाते हैं, टालते जाते हैं.

ऐसे में माता-पिता भी एक अवर्णनीय पीड़ा से गुज़रते है.... बेचारे वो तो ये भी समझ नहीं पाते, कि बच्चे अचानक ऐसा बर्ताव क्यों कर रहे हैं, आखिर क्यों नहीं खुल कर बात हो पाती. बच्चे चिल्लाने लगते हैं, कुछ जान दे देने की धमकी देते हैं, कुछ घर छोड़ देंगे ऐसा कहते हैं, कुछ कभी शादी न करने की धमकी देते हैं, माता पिता टूट जाते हैं, रोते हैं , बिलखते हैं, पर बच्चे नहीं समझ पाते.... और पूरा परिवार अवर्णनीय तनाव के लम्बे दौर से गुज़रता है..... धैर्य का अंत हो जाता है, वाक् बाण चलते हैं, जो बच्चों के भी और माता पिता के भी सीनों को चीर जाते हैं, कई बंदिशें लगती हैं, यहाँ तक की हाथ भी उठ जाते हैं...... कोई हल नज़र नहीं आता, न तो युवाओं को और न ही माता पिता को.

प्रेम विवाह गलत नहीं हैं, कट्टर ररूढ़िवादिता के चलते यदि माता-पिता भी अपने बच्चों की बात को सिरे से नजरअंदाज कर दें, तो यह सही नहीं है. बदलते समय के अनुसार उन्हें भी अपने सोच के दायरों को विस्तार देना चाहिए. और युवाओं को यह बात पूर्णता से समझ कर गाँठ बाँध लेनी चाहिए की माता-पिता से बढ़ कर उनका कोई हितैषी नहीं हो सकता. आखिर कैसे कोई भी माता-पिता जो अपने बच्चों की राहों में बिछाने के लिए हाथों में फूल लिए बैठे हों, वो संयत हो कर सब देखते बूझते हुए भी अपने बच्चों को काँटों के रास्ते पर चलने की इजाज़त दें दें....

जहां तक मुझे लगता है, ऐसे बेमेल प्यार का कोइ सुखद भविष्य नहीं होता, क्योंकि वैवाहिक ज़िंदगी सिर्फ स्वप्निल प्यार नहीं होती, बल्कि प्रेमपूर्वक सारी जिम्मेदारियों का आपसी समझ के साथ निर्वहन होती है... विभिन्नताएं और विषमताएं जितनी ज्यादा होती हैं रिश्तों को निभाना उतना ही मुश्किल होता जाता है.

और विवाह जैसा महत्वपूर्ण निर्णय कभी भी एक भावप्रवाह में लिया गया भावुक निर्णय ना होकर एक सोचा समझा सुलझा हुआ निर्णय ही होना चाहिए. जिसे युवाओं द्वारा एक पूर्णतः स्वस्थ मनःस्थिति में लिया जाना चाहिए.

 

 

............इस विषय पर कहने के लिए बहुत कुछ है, पर अभी इतना ही.

सादर.

कल एक माता पिता की व्यथा और उनकी आँखों के आंसुओं, साथ ही उनकी युवा संतान की ऐसी ही जिद नें, इस पारदर्शी सोच को इस आलेख मे शब्दबद्ध कर आप सबके साथ सांझा करने को बाध्य किया. 

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Replies to This Discussion

आदरणीया प्राची जी:

 

आपने सामयिक और महत्वपूर्ण विषय चुना है।

 

गत कुछ वर्षों में भारत में पाश्चात्य प्रभाव इस प्रकार बढ़ रहा है कि जैसे जंगल में आग लगी हो,

यह अब थम नहीं सकती... अत: यही सोचा जाए कि इसके प्रकोप की गति को कैसे कम किया जाए,

इससे हो रही हानि पर कैसे नियंत्रण रखा जाए।

 

माता पिता टूट जाते हैं, रोते हैं , बिलखते हैं, पर बच्चे नहीं समझ पाते.... और पूरा परिवार

अवर्णनीय तनाव के लम्बे दौर से गुज़रता है..... धैर्य का अंत हो जाता है, वाक् बाण चलते हैं,

जो बच्चों के भी और माता पिता के भी सीनों को चीर जाते हैं

 

अभी भी माता-पिता के लिए, परंपरा, संस्कार और संस्कृति के लिए ह्मारे भारतवर्ष में

पाश्चात्य देशों से अधिक आदर है। छोटे शहरों में यह अभी भी काफ़ी है, पर बड़े शहरों में

शीघ्र कम हो रहा है। अत: सवाल यह है कि इसका अनुरक्षण कैसे किया जाए। इसके लिए

माता-पिता को अपने life-style पर नियंत्रण रखना होगा । आज के माता-पिता सोचें कि

यदि उनको स्वयं क्लब जाने की आदत है, मय पीने का शोक है, तो किशोर संतान पर

उसका क्या प्रभाव होगा? यदि वह स्वयं क्रोध करते हैं, अपशब्द का प्रयोग करते हैं ,

और माता-पिता का परस्पर व्यवहार यदि सम्मान्य  नहीं है तो बच्चों के बड़े होने पर उनसे

क्या उमीद करेंगे ... और ऐसे में वह उमीद करें ही क्यों .. यदि माता-पिता ने उनको अच्छे

उदाहरण नहीं दिए।

 

माता-पिता का रिश्ता यदि आपस में open नहीं है, एक दूसरे से आए-गए  कुछ छुपाते हैं,

एक दूसरे से यदि झूठ बोलने से नहीं कतराते, तो इसका प्रभाव बच्चों पर क्यों नहीं होगा?

 

अत: जंगल में बढ़ती आग की गति को थामने का दायित्व हम बड़ों पर है।

 

पाठशाला में शिक्षा को बदलना होगा, घर में भी शिक्षा देनी होगी। इसके साथ-साथ हमें

बच्चों के साथ समय लगाना है, उन्हें स्नेह देना है, उनकी बातें और उनकी कठिनाईयाँ सुननी हैं।

We cannot have a dysfunctional family and yet expect functional outcomes later!

यह दायित्व बहुत बड़ा दायित्व है... अत: माता-पिता को सदैव स्वयं संग उपरोक्त बातों पर

चौकन्ना रहना होगा।

 

माता-पिता बनना बहुत आसान है, पर अच्छा माता-पिता बनना बहुत बड़ा काम है!

 

सादर,

विजय निकोर

आदरणीय विजय निकोरे जी,

इस चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है..

ऐसे वाकियों में देखा गया है कि बच्चों और माता-पिता में अचानक दूरियां आ जाती हैं, और दोनों ही एक दुसरे को बिलकुल समझ नहीं पाते.

इसके पीछे के कारणों को देखें तो एक कारण अभिभावकों का परस्पर व्यवहार भी है, जब परिवार में आपसी समझ और सबमें सलीके से अपनी बात रखने का धैर्य हो तो स्थिति कुछ हद तक नियंत्रित रहती है.

// इसके साथ-साथ हमें बच्चों के साथ समय बिताना है, उन्हें स्नेह देना है, उनकी बातें और उनकी कठिनाईयाँ सुननी हैं।//

आपकी इस बात को मेरा शत प्रतिशत समर्थन है, कि माता पिता को बच्चों के साथ बहुत वक़्त बिताना चाहिए, ये रिश्ता ऐसा होना चाहिए कि बच्चे बड़ी से बड़ी बात भी अपने माता पिता के समक्ष सहजता से बिना डर कर सकें.

बच्चों के मन में यह बात इतनी सुदृढ़ता से बैठी होनी चाहिए की मेरे माता पिता से बेहतर मुझे कोइ नहीं समझ सकता... उन्हें ऐसा नहीं लगना चाहिए की माता पिता हमें नहीं समझेंगे...!!! इसके लिए माता-पिता दोनों को ही बच्चों से बिलकुल मित्रवत घनिष्ठता का सम्बन्ध रखना चाहिए , न कि अपनी डिक्टेटरशिप को बड़प्पन कह कर बच्चों की भावनाओं को अनसुना करना चाहिए. 

"We cannot have a dysfunctional family and yet expect functional outcomes later"...I agree.

माता पिता  बनना बहुत आसान है, पर बच्चों को सही परवरिश  और सही दिशा दे पाना पग पग पर सजगता माँगता है..

युवाओं के मनों में भारतीय संस्कार और परम्पराएं जिस तरह आज पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध के सामने धुन्धुली पढ़ती दीखती हैं, वहीं जो भारतीय मूल के व्यक्ति विदेशों में बसे है, वो भी अपनी भारतीय मूल्यों को अपने बच्चों के ह्रदय में जगह न पाता देख कर विचलित होते होंगे, क्या आप इस बारे में कुछ सांझा करना चाहेंगे?

आपका हार्दिक स्वागत है.

सादर.

आदरणीया प्राची दी सादर नमन!
आपने बहुत ही समसामयिक और महत्तवपूर्ण आलेख लिखा है,जिसके मैं आपको कोटिश: धन्यवाद देता हूं।
वस्तुत: हमारे पास जिस वस्तु की कमी होती है,हम वही चीज बाहर या दूसरों के पास ढूढ़ते हैं।सम्भवत: हम युवा भी इसी मनोदशा से गुजरते हैं।जब हमें लगता है कि हम अपने माता-पिता से समुचित प्यार नहीं मिल पा रहा है,या हमारी बातों,हमारी समस्याओं को सुनने वाला कोई नहीं या हम से अधिक कोई चीज उन्हें महत्तवपूर्ण लगती है या अपने अंदर बुराइयों के होने के बावजूद वहीं बुराइयां यदि हमारे अंदर हैं तो उन्हें बुरी लगतीं हैं या पारिवारिक हालात तनावपूर्ण होते हैं,ये कतिपय स्थितियां हमें हमारे माता-पिता,परिवार से दूर ले जाती हैं।फलस्वरूप वह बाहर एक प्यार करने वाला,एक बात सुनने वाला,एक ऐसा व्यक्ति जो हमें भी महत्तवपूर्ण समझे,हमारी बुराइयां जिसे बुराई न लगे तथा शांत स्थल की तलाश करने लगते हैं।अब चूंकि यह समय होश का नहीं जोश और भावावेश का होता है,साथ ही स्थिति प्यासे की सी होती है अत: ऊंच-नीच,हानि-लाभ का विचार बहुत कम हो पाता है।फैसले गलत अधिक और सही कम हो पाते हैं।जो बाद में स्थिति को गम्भीर और भयावह बना देते हैं।
साथ ही विषमलैंगिक आकर्षण,सेक्सुअल इच्छा,तथा इस संदर्भ में इंटरनेट व मार्केट में पर्याप्त अधकचरी सामग्री आग में घी का काम करती है।
साथ ही

प्रिय अनुज विन्ध्येश्वरी जी,

चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है,

आपनें प्रेम की तलाश में भटकते युवा मनोविज्ञान के कई यथार्थ तथ्यों को प्रस्तुत किया है, 

//वस्तुत: हमारे पास जिस वस्तु की कमी होती है,हम वही चीज बाहर या दूसरों के पास ढूढ़ते हैं//....असल में ये कमी कभी होती ही नहीं, क्योंकि हर माता पिता अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं,... फिर भी परिलक्षित कमी संवादहीनता से उत्पन्न होती है. बहुत ज़रूरी है माता पिता का अपने युवा होते बच्चों को समझना, उनके ह्रदय में अपने प्रति और अपने प्रेम की निःस्वार्थता के प्रति भरोसा पैदा करना.

माता पिता अपनी व्यस्तताओं में बच्चों को और उनकी छोटी छोटी समस्याओं को अनदेखा कर देते हैं, उन्हें for granted लेकर चलते हैं, और बच्चों के मन में अकेलापन घर कर लेता है.

व्यस्तताओं और जिम्मेदारियों के चलते वो छोटी छोटी बातों पर जब युवा बच्चों पर झल्लानें व चिढचिड़ाने लगते हैं तब युवाओं को यदि ऐसा साथ बाहर मिलता है, जो उनकी हर बात को मुस्कुरा कर स्वीकार करे, तब वो उस सुकून के अस्थाई एहसास को प्रेम समझ बैठते हैं.

//जोश और भावावेश का होता है,साथ ही स्थिति प्यासे की सी होती है अत: ऊंच-नीच,हानि-लाभ का विचार बहुत कम हो पाता है//

प्रिय विन्ध्येश्वरी जी, ये आपने बिलकुल सही पंक्ति कही कि जोश और भावावेश की मानसिकता में उंच नीच , हानि-लाभ का ध्यान ही नहीं रहता...... 

अस्वस्थ मानसिकता में प्राप्त सहारे या सुकून को प्रेम कहना गलत है... और ऐसी मानसिकता जिसमें होश ही समाविष्ट नहीं, यह मानसिकता आने वाली पूरी ज़िंदगी के फैसले लेने के लिए कहाँ तक उचित है?

कई महत्वपूर्ण बेहद सूक्ष्म बिन्दुओं को पूरी सच्चाई के साथ चर्चा में लाने के लिए आभार विन्ध्येश्वरी जी.

शुभेच्छाएँ.

आदरणीया प्राची दीदी!आपने सत्य कहा है कि माता-पिता का बच्चों के प्रति प्यार कम नहीं होता,लेकिन दूसरी तरफ आप यह भी कह रही हैं कि आपा-धापी,भागा-दौड़ी में वे अपने बच्चों के लिये समय नहीं निकाल पाते।अर्थात एक बात जो मैंने कहा है कि बच्चों को यह अहसास हो जाता है कि उनके माता-पिता के जीवन में उससे भी महत्तवपूर्ण कोई वस्तु है।बस यहीं से उसकी दूर अपने माता-पिता से बढ़ती जाती है और माता-पिता तो पहले से ही व्यस्तता वश दूर हो चुके होते हैं।लेकिन दोनों को ही इसका अहसास तब होता है,जब व सब बहुत दूर निकल आये होते हैं।

एक महत्त्वपूर्ण बात कि यह दशा पश्चिमी विकसित देशों में व्याप्त है,अब हमारा समाज भी इसी दौर से गुजर रहा है और सम्भावना इस बात की है कि यह निरंतर बढ़ता ही जायेगा।सम्प्रति यहां कुछ विमर्श-प्रश्न उपस्थित होते हैं-
1(क)-क्या इस परिस्थिति का मुखर विरोध किया जाये?
1(ख)-आज के युवाओं को अपने गौरव,अतीत,अस्मिता का बोध कराया जाये?
1(ग)-युवाओं को सही मार्गदर्शन देते हुए,उनमें बाल्यकाल से ही सद्-असद् के विचार की शक्ति का विकास किया जाये तथा उनकी प्रत्येक समस्याओं का यथासम्भव निदान करने का प्रयास किया जाये?
1(घ)-क्या जिस प्रकार के आचरण की अपेक्षा माता-पिता अपने पाल्य से करते हैं,उसी प्रकार का आचरण उन्हें स्वयं नहीं करना चाहिये।
2-या इसे एक सामजिक परिवर्तन मानकर स्वीकार कर लेना चाहिये?

दरअसल हमारी विकसित होने की सोच का मूलभूत दोष ही इसके लिए उत्तरदायी है। हमने व्यस्तता, भौतिकवादी सुख सुविधाओं और अधिक से अधिक कमा लेने की मौलिक सोच को ही विकास का पर्याय मान लिया है। यही समस्या की जड़ है। जब हम स्वयं अपने मूल्यों और संस्कृति से कटे रहेंगे तो उनके बीज बच्चों में कैसे बो पाने में सक्षम होंगे। अंग्रेजी और अंग्रेजियत को आत्मसात कर चुके लोगों को भारत का इतिहास और गौरव आकर्षित नहीं करता। उनके लिए मैडोना और टाइटैनिक आकर्षण का केन्द्र हो सकते हैं निराला और चेतक नहीं।    

विन्ध्येश्वरी जी, 

इस समस्या का समाधान सिर्फ परिवार में सदस्यों के बीच के आपसी सांजस्य को सुदृढ़ करे ही हो सकता है... जिसके लिये व्यक्ति विशेष का आचरण सबसे ज्यादा महत्त्व रखता है..

बचपन से ही सही मार्गदर्शन और मानसिक संतुलन को बनाये रखने का ज्ञान, साथ ही आत्मनिर्भरता (अपनी खुशियों के लिए किसी दूसरे पर निर्भर न करने की सक्षमता)  ये चीज़ें बहुत ज़रूरी हैं.

परिस्थिति का मुखर विरोध संभव नहीं, न ही मनोरंजन और मासमीडिया के कुप्रभाव को रोका जा सकता है, ऐसे में व्यक्ति में स्वयं ही विवेक होना चाहिए.... जो आज युवाओं में नहीं मिलता.

आदरणीया प्राची जी
आपने चर्चा के लिए बहुत ही गम्भीर विषय चुना है। यहां एक बिन्दु जुड़ा है और वह है तेज दौड़ती भागती जिंदगी के हाइटेक होते जाने के साथ खत्म हो रही संवेदना के बीच रूढ़िवादिता में जकड़े रहने का। हमारे अधिकांश भारतीय परिवारों में माता पिता और बच्चों के बीच संवाद की स्थिति अच्छी नहीं होती। दूसरे मां बाप द्वारा बदलते दौर के साथ अपना सामंजस्य न बिठा पाना तथा नई पीढ़ी द्वारा पुरानी पीढ़ी को दकियानूसी समझते हुए उनके विरूद्ध विद्रोह की स्थितियां भी इन परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी हैं।

आदरणीय बृजेश कुमार जी 

चर्चा में आपका सहर्ष स्वागत है!

आपने एक महत्वपूर्ण पक्ष को सामने रखा है..

 //मां बाप द्वारा बदलते दौर के साथ अपना सामंजस्य न बिठा पाना तथा नई पीढ़ी द्वारा पुरानी पीढ़ी को दकियानूसी समझते हुए उनके विरूद्ध विद्रोह//

जनरेशन गैप हर समय में एक समस्या बन कर ही सामने आया है, जो एक बहुत बड़ा कारण है परिवारों में पनपने विद्रोह की स्थितियों का. इसका समाधान भी हमारे मानवीय और पारिवारिक मूल्यों को सुदृढ़ कर के ही हो सकता है..

जहां एक तरफ बदलती हाईटेक जीवन शैली को आत्मसात न कर सकने वाले माता-पिता बच्चों को पिछड़े से लगने लगते हैं,वही दूसरी ओर स्कूल कोलेज के युवा फैशन और गजेट्स के पीछे भागते से नज़र आते हैं... फिर आज कल लड़कों का लड़कियों के साथ घूमना या कहें गर्लफ्रेंड या बोयफ्रेंड रखना एक फैशन सा होता जा रहा है..जो बहुत चिंतनीय है.

यहां यह तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब इंटरनेट और इलेक्ट्रानिक मीडिया अच्छा बुरा सबकुछ सारा विश्व एक ही थाली में सामने परोसकर रख दिया है। ऐसे में क्या रखना है और क्या नहीं यह समझाना मां बाप का ही दायित्व है और यह तब ही हो सकता है जब हम इन साधनों से रूबरू हों।
प्रेम और वासना का फर्क बच्चों को महसूस कराना होगा। दोस्त और मित्रता को परिभाषित करना होगा लेकिन यह होगा तब जब मां बाप खुद संवेदनशील हों और इन अंतरों को खुद समझते हों। जो मानसिकता समाज में पैर जमाती जा रही है उसमें मां बाप से ऐसी उम्मीद करना भी जरा मुश्किल ही नजर आता है।

आदरणीया प्राची जी सादर नमस्कार!अत्यंत महत्वपूर्ण एवम संवेदनशील विषय है ये।आज हमारा युवा वर्ग भटक गया है।उसे अपना भला-बुरा कुछ भी समझ नहीं आ रहा है,या वह जान -बूझ कर अपना हित नहीं समझ पा रहा है।आज प्रेम और प्रेम-विवाह के मामलों में उसे अपने सबसे बड़े शत्रु अपने परिजन ही नज़र आते है।चाहे वह उसका कितना ही भला क्यों न चाहते हो,पर वह उन्हें ही सबसे बड़ा दोषी मानता है।चाहे वे उसके लिए कितना ही अच्छा सम्बन्ध क्यों न ढूँढे पर वह उन पर विश्वास नहीं करता।यह अत्यंत विडम्बनापूर्ण स्थिति है,जिससे आज लगभग हर परिवार को,प्रत्येक माता -पिता को जूझना पड़ रहा है।

प्रिय सावित्री जी,

चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है,

कितनी दुखद बात है कि प्रेमांधता में स्वजन ही अपने सबसे बड़े शत्रु नज़र आते हैं... ऐसी दिग्भ्रमित मानसिकता के साथ यदि आज के युवा  विवाह जैसा महत्वपूर्ण निर्णय लेते हैं, तो वो कितना एक तरफ़ा और अनिश्चिततापूर्ण होगा.

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