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कुछ नहीं बिगाड़ सकी,
मेरा,
सिकंदर की तलवार|
हाँ,झेला है मैंने –
सेल्युकस की रार|
नादिरशाही तलवारों की –
प्यास बुझाई है|
लेकिन मेरे प्यारे पुत्रों!
आज दुहाई है|
मेरे कोख की महिमा,
भीष्म पितामह से पूछो|
शंकर के दर्शन में ढूंढो,
तारों से पूछो|
यायावर राहुल से पूछो –
तुम्हे बताएँगे|
गंगा से वोल्गा तक,
सारा दृश्य दिखायेंगे|
फिर देखो मटमैली मेरी –
राम कहानी रे|
सत्युग से पापों को धोता आया –
पानी रे|
आज नहीं मुझमे जल है,
मैं गंगा हूँ,
मुझमे मल है|
हाय रे गीता,हे गोविंदा!
कैसी गंगा?
अब अवजल है|

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Comment by RAJEEV KUMAR JHA on April 8, 2012 at 10:16am

बहुत ही ओजस्वी कविता,आदरणीय मयंक जी.

आज नहीं मुझमे जल है, मैं गंगा हूँ, मुझमे मल है| हाय रे गीता,हे गोविंदा! कैसी गंगा? अब अवजल है|

बहुत सुन्दर पंक्तियाँ.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 6, 2012 at 9:53pm

सत्युग से पापों को धोता आया –
पानी रे|
आज नहीं मुझमे जल है,
मैं गंगा हूँ,
मुझमे मल है|
हाय रे गीता,हे गोविंदा!
कैसी गंगा?
अब अवजल है|

स्नेही मयंक जी , सादर  ,  सुन्दर वाह क्या लिखा है, बधाई. लोग अभी इसका महत्त्व नहीं समझ रहे हैं, हलके में ले रहे हैं अब भी चेत जाएँ. 

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 6, 2012 at 11:15am

यथार्थ और मर्मस्पर्शी  रचना पर बधाई स्वीकार करें सर

Comment by Arun Sri on April 6, 2012 at 10:01am

शब्दातीत अनुभूति !!!!!!!!!!!!

NO COMMENT.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 6, 2012 at 8:39am

गंगा का प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है यह एक ज्वलंत चिंता का विषय है आपने गंगा के मन के दर्द को बहुत अच्छे शब्दों में ढाला है सराहनीय है 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on April 6, 2012 at 8:09am
मनोज जी, आपने भी क्रंदन कर दिया 
गंगा जी का रुदन हमारी झोली में भरा दिया! 
आप ही जब ऐसे आंसू बहायेंगे, 
भला पापियों का नाश कैसे कर पाएंगे?
आपके सम्मान में
Comment by आशीष यादव on April 6, 2012 at 6:59am
एक सुन्दर रचना। गङ्गा की दुर्दशा सच मे आज देखी नही जाती।
एक जोरदार रचना हेतु बधाई
Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 6, 2012 at 3:41am

......................निःशब्द मनोज भाई!!!!!!

Comment by अश्विनी कुमार on April 5, 2012 at 11:16pm

भाई क्या बात है धुवांधार बाउंड्री .........जय भारत :)

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