For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

जय गणेश - सर्ग १ - उपसर्ग १

छंद : दोहा

 

है ग्यारह आयाम से, निर्मित यह संसार

सात मात्र अनुमान हैं, अभी ज्ञात हैं चार।

 

तीन दिशा आयाम हैं, चतुर्याम है काल;

चारों ने मिलकर बुना, स्थान-समय का जाल।

 

सात याम अब तक नहीं, खोज सका इंसान;

पर उनका अस्तित्व है, यह हमको है ज्ञान।

 

हैं रहस्य संसार के, बहुतेरे अनजान;

थोड़े से हमको पता, कहता है विज्ञान।

 

कहें समीकरणें सभी, होता है यह भान;

जहाँ बसे हैं हम वहीं, हो सकते भगवान।

 

यह भी संभव है सखे, हो अपना दिक्काल;

दिक्कालों के सिंधु में, तैर रही वनमाल।

 

ऐसे इक दिक्काल में, रहें शक्ति शिव संग;

है बिखेरती हिम जहाँ, भाँति-भाँति के रंग।

 

जहाँ शक्ति सशरीर हों, सूरज का क्या काम;

सबको ऊर्जा दे रहा, केवल उनका नाम।

 

कालचक्र है घूमता, प्रभु आज्ञा अनुसार;

जगमाता-जगपिता की, लीला अमर अपार।

 

करते हैं सब कार्य गण, लेकर प्रभु का नाम;

नंदी भृंगी से सदा, रक्षित है प्रभु धाम।     

 

विजया जया किया करें, जब माता सँग वास;

प्रिय सखियों से तब उमा, करें हास परिहास।

 

हिमगिरि चारों ओर हैं, बीच बसा इक ताल;

मानसरोवर नाम है, ज्यों पयपूरित थाल।

 

कार्तिकेय हैं खेलते, मानसरोवर पास;

उन्हें देख सब मग्न हैं, मात-पिता, गण, दास।

 

सुन्दर छवि शिवपुत्र की, देती यह आभास;

बालरुप धर ज्यों मदन, करता हास-विलास।

 

सोच रहे थे जगपिता, देवों में भ्रम आज;

प्रथम पूज्य है कौन सुर, पूछे देव-समाज?

 

आदिदेव हूँ मैं मगर, स्वमुख स्वयं का नाम;

लूँगा तो ये लगेगा, अहंकार का काम।

 

कुछ तो करना पड़ेगा, बड़ी समस्या आज;

तभी सोच कुछ हँस पड़े, महादेव गणराज।

 

जय गणेश - सर्ग १ - उपसर्ग २

छंद : रोला

 

कालान्तर में जया और विजया ने आकर,

कहा उमा से--“सखी जरा सोचो तो आखिर;

ये सारे गण, नंदी, भृंगी शिव के चाकर,

शिव की ही आज्ञा का पालन करें यहाँ पर;

यद्यपि वे अपने ही हैं पर मन ना माने,

ऐसा कोई हो जो बस हमको पहिचाने।”

माता बोलीं--“सच हो तुम दोनों का सपना,

फुर्सत में मैं कभी बना दूँगी गण अपना।”

आई गई हो गई यूँ ही घटना सारी,

पर लीला भोले की क्या जानें संसारी।

इक दिन माता स्नान कर रहीं थीं जब भीतर,

पहुँचे भोले भंडारी तब घर के बाहर;

नंदी खड़ा कर रहा था घर की रखवाली,

बोले प्रभो—“कहाँ है मेरी प्रिय घरवाली।”

नन्दी बोला—“स्नान कर रही हैं जगमाता।”

“हटो सामने से अब मैं हूँ अन्दर जाता।”

यह कहकर जब जगतपिता कुछ आगे आए,

नन्दी हटा पूर्ण श्रद्धा से शीश झुकाए;

आते देख प्रभो को, माँ को लज्जा आई,

तथा बात सखियों की तभी उन्हें याद आई;

उन्हें लगे वे वचन उस समय अति हितकारी,

निज गण का सुविचार लगा तब अति  सुखकारी;

सोचा माँ ने एक गुणी बालक हो ऐसा,

कार्यकुशल, आज्ञा में तत्पर रहे हमेशा;

जो भय से या मोह-लोभ से विचलित ना हो,

देव, दैत्य, त्रिदेव से जिसे कुछ डर ना हो।

 

जय गणेश - सर्ग १ - उपसर्ग ३


तब विचार कर माँ ने महाऊर्जा को तत्काल बुलाया,

और फिर उसे घनीभूत कर इक सुन्दर सा पिंड बनाया;

अपनी प्राण ऊर्जा का कुछ एक उसीमें अंश मिलाया,

तथा इस तरह चेतनता दे इक बालक संपूर्ण बनाया।

सुंदर दोषरहित अंगों का स्वामी, महाकाय वह था,

शोभायमान शुभलक्षण थे सम्पन्न पराक्रम बल से था;

देवी ने उसे अनेक वस्त्र, आभूषण औ’ आशीष दिया,

उसने देवी के सम्मुख आदर पूर्वक नत निज शीश किया।

बोलीं माता—“तुम अंश हमारे, पुत्र हमारे, हो प्यारे,

तुम प्रिय सबसे हो सुत मेरे, है नहीं दूसरा तुम सा रे;

तुम सभी गणों के हो स्वामी इसलिये नाम गणपति, गणेश,

तुमको है नहीं किसी का डर हों विधि या हरि या हों महेश।”

बोले गणेश तब--“हे माता मुझको क्यों जीवनदान दिया,

वह कौन असंभव कार्य जिसलिए है मेरा निर्माण किया।”

माता बोलीं--“इक कार्य बहुत छोटा सा तुमको है करना,

है घर का मुख्य द्वार तुमको हर पल हर क्षण रक्षित रखना;

मेरी आज्ञा के बिना कोई भी भीतर न आने पाये,

वह हो कोई भी और कहीं से भी हठ करता वह आये।”

ऐसा कह माता ने इक छोटी सुदृढ़ छड़ी गणेश को दी,

फिर परमऊर्जा अपनी उसमें सारी की सारी भर दी;

हाथों में लेकर परमदण्ड आए गणेश दरवाजे पर,

माता होकर निश्चिन्त चलीं करने स्नान तब गृह भीतर।

 

जय गणेश - सर्ग १ - उपसर्ग ४

 

जटा बीच गंगधार,
करते लीला अपार,
बहुविधि नाना प्रकार;
आये प्रभु तभी द्वार।
खड़े थे गणेश वहीं,
बोले—“रुक जाओ यहीं,
माता हैं स्नान करें,
अभी आप धैर्य धरें;

देवि मिलना चाहेंगी,

तो स्वयं बुलायेंगी;

बिना उनकी आज्ञा के,

कोई भी जा न सके।”

यह सुन प्रभु तमक उठे,

रोम रोम भभक उठे,

बोले प्रभु—“अरे मूर्ख,

मारूँ मैं एक फूँक,

तो हिलती धरती है,

तेरी क्या हस्ती है;

जानता नहीं क्या तू,

मैं ही जगकर्ता हूँ,

मैं ही जगभर्ता हूँ,

मैं ही जगहर्ता हूँ,

विधि-हरि का सृष्टा हूँ

मैं त्रिकालदृष्टा हूँ,

पर तुझको तो मेरे,

सेवक ये बहुतेरे,

ही बेबस कर देंगे,

तव घमंड हर लेंगे।”

यह सुनकर गण बोले--

“क्रोधित हैं बम-भोले,

तुमको शिव-गण समान,

अब तक हम रहे मान,

वरना क्या तुम्हें ज्ञान,

कबका हर लेते प्रान,

इसी में भलाई अब,

थोड़ा सा जाओ दब,

रास्ते से हट जाओ,

मृत्यू से बच जाओ।”

बोले यह सुन गणेश,

“चाहे ये हों महेश

या हों जगसृष्टा ये,

या त्रिकालदृष्टा ये,

मैं आज्ञा पालक हूँ,

माता का बालक हूँ,

बिना मातृ आज्ञा के,

भीतर ये जा न सकें।”

यह सुनकर गण सारे,

बोले—“प्रभु हम हारे,

समझा-समझा इसको,

ये सुनता ना हमको,

जिद्दी यह लड़का है,

बुद्धी से कड़का है।”

गणों से ऐसा सुनकर,

बोले तब शिव शंकर,

“महारथी हो तुम सब,

इसकी क्यों सुनते अब,

मुझे कथा मत सुनाओ,

इसे द्वार से हटाओ।”

 

जय गणेश - सर्ग १ - उपसर्ग ५


भोले भण्डारी के मुख से ऐसा सुनकर,

सारे आए अस्त्र शस्त्र हाथों में लेकर।

सबसे पहले नन्दी ने निज बल अजमाया,

महाऊर्जा ने झटका दे दूर हटाया;

एक बार जो गिरा दुबारा उठ ना पाया,

देख दशा नन्दी की सब का जी घबराया।

किन्तु क्रोध भोले का तभी ध्यान में आया,

सबने एक साथ मिलकर भुजबल दिखलाया;

पर अपार है भोले-भंडारी की माया,

महाऊर्जा ने वह झटका पुनः लगाया;

सबके सब गिर गये पलों में मूर्च्छित होकर,

दूर खड़े बस मुसकाते थे भोले-शंकर;

सोचा प्रभु ने कर दें गर्व चूर देवों का,

फूल गये सब कर सेवन पूजा-मेवों का।

इन्द्र देव को तब प्रभु ने तत्काल बुलाया,

अग्नि, पवन, दिनकर को भी वह सँग सँग लाया;

अग्नि देव सबसे पहले थे आगे आए,

आकर गौरीसुत पर सारे बल अजमाए;

अग्नि क्या करे जहाँ स्वयं हो महाऊर्जा,

पवन देव डर गये देख वह परमऊर्जा;

दिनकर जाकर छुपे पहाड़ों के पीछे फिर,

वरुण देव क्या करते हारे वे भी आखिर;

इन्द्र देव का वज्र पिघलकर मिला धरा में,

तथा मदन थे काँप रहे ज्यों वृद्ध जरा में;

आये तब विधि, हरि शस्त्रों से सज्जित होकर,

चक्र सुदर्शन लौटा ले शिवसुत के चक्कर;

सारे अस्त्र शस्त्र थे लौटे निष्फल होकर,

विधि, हरि देख रहे थे यही अचम्भित होकर।

इन सबका कर गर्व चूर शिव आगे आए,

शस्त्र उन्होंने भाँति भाँति के तब अजमाए;

अस्त्र शस्त्र गिर गए सभी जब निष्फल होकर,

तब जाकर थे क्रुद्ध हुए प्रभु भोले शंकर;

नेत्र तीसरा तभी उन्होंने अपना खोला,

निकला आदि ऊर्जा का उससे एक शोला;

महाऊर्जा हटी राह से शीश झुकाए,

मगर खड़े थे गौरीसुत निज शीश उठाये।

आदि ऊर्जा भस्म कर गई मस्तक उनका,

तड़प उठा होकर विहीन सर से धड़ उनका।

 

जय गणेश - सर्ग १ - उपसर्ग ६

 

यह खबर गई माता का कोमल हृदय चीर,

दिल का लोहू टपका तब बनकर नयन नीर।

जब देखा माँ ने निज सुत का विच्छेदित तन,

तब बिलख बिलख कर रोया उनका कोमल मन।

ज्यों गंगाजल से निकल पड़ी हो महाअगन,

त्यों उनके मुख से थे निकले तब यही वचन।

 

XXX      XXX      XXX      XXX

 

 

देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

 

एक नन्हे पौधे को कुचला,

इक कलिका को तुमने मसला,

तुमने बालक की हत्या की,

तुम महापाप के हो भागी,

आई ना तुमको सुरों जरा भी लाज!

देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

 

मानव बालक जिद करते हैं,

तो मानव पूरी करते हैं,

जिद अगर मानने योग्य नहीं,

तो समझाते हैं उसे सभी,

बहला फुसला सब करते अपना काज!

देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

 

तुम मानव से कुछ शिक्षा लो,

मत केवल पूजा-भिक्षा लो,

तुम मानव से भी निम्न आज,

तिस पर किंचित भी नहीं लाज,

तुम सबने पहना दानवता का ताज!

देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

 

मेरे बालक की क्या गलती,

यह तो मेरी ही आज्ञा थी,

निर्भय मेरा वह लालन था,

बस करता आज्ञा पालन था,

है मुझको अपने वीर पुत्र पर नाज!

देवों दैत्यों का फर्क मिट गया आज!

 

जय गणेश - सर्ग १ - उपसर्ग ७

 

दिल का दर्द बहा नेत्रों से जैसे जैसे,

क्रोध उतरता आया उनमें वैसे वैसे।

सोचा माँ ने हुआ आज अपमान बड़ा है,

अहंकार नर का ही ये सशरीर खड़ा है;

नारीक्रोध आज इनको दिखलाना होगा,

इज्जत नारी की करना सिखलाना होगा;

क्रोध बढ़ा जगमाता का फिर जैसे जैसे,

काली रूप उभरता आया वैसे वैसे।

रूप महाकाली का क्या लिक्खूँ कैसा था,

धारण किया शरीर प्रलय ने कुछ ऐसा था;

उसे देख भयभीत हो गये शिवगण सारे,

दौड़े, भागे, छिपे सभी जा जा बेचारे;

काली करने लगीं द्रव्य-ऊर्जा रूपान्तर,

जलने लगीं दिशाएँ, सुलगे धरती अंबर;

लगे चीखने गण, काँपे देवों के अंतर,

निकट सृष्टि का अंत देखकर भोले शंकर;

बोले, “देवों! रुष्ट हो गईं हैं जगमाता,

माँ बेटे का होता है कुछ ऐसा नाता;

बेटे का अरि होता है माता का दुश्मन,

इसीलिए अब उमा-शत्रु से हैं हम सब जन;

महासमस्या है जल्दी हल करना होगा,

गौरीसुत को फिर से चंचल करना होगा;

भस्म कर चुकी हो जिसको खुद आदि ऊर्जा,

उसको फिर साकार नहीं कर सकता दूजा;

कामदेव को भस्म किया था इसने सारा,

बना अनंग घूमता तबसे वह बेचारा;

जाओ, दौड़ो, खोजो समय बहुत ही कम है,

ढूँढो कोई जिसमें गणपति सम दम-खम है;

उसका सिर लेकर आओ अतिशीघ्र तुम सभी,

सृष्टि बचेगी और बचोगे तुम सब तब ही।”

दौड़े सभी देवता औ’ शिवगण तब ऐसे,

देख काल को भागें सब नश्वर नर जैसे;

दिखा एक गज महाकाय तब अतिबलशाली,

काटा शीश, तोड़ता ज्यों कलिका को माली;

लेकर आये, धन्वन्तरि तैयार खड़े थे,

जोड़ा सिर को धड़ से, वे होशियार बड़े थे;

भोले शंकर तब मुस्काकर आगे आये,

थोड़ी प्राण ऊर्जा अपनी सँग ले लाये;

वही ऊर्जा अपनी जब गणपति में डाली,

हुआ पुत्र सम्पूर्ण सोच मुस्का दीं काली;

गणपति उठे तेज शिव औ’ शक्ती का लेकर,

उन्हें साथ ले आगे आए भोले शंकर।

बोले काली से, “देवी अब शांति धरो तुम,

अखिल सृष्टि का ऐसे मत विध्वंस करो तुम;

पुत्र तुम्हारा है जीवित, अजेय, बलशाली,

अब तो बनो शिवा हे महाकाल की काली;

अनजाने में तुम्हरा जो अपमान किया है,

आज उसी की खातिर यह वरदान दिया है;

नारी नाम सदा नर से पहले आएगा,

भोले शंकर गौरीशंकर कहलाएगा;

नारी की आहुति बिन यज्ञ अपूर्ण रहेंगे,

मुझे आज से गौरीपति सब लोग कहेंगे;

बिन प्रयास वह पुरुष हृदय पर राज करेगी,

अखिल सृष्टि इक दिन नारी पर नाज करेगी;

नारी का अपमान करेगा जो कोई भी,

होगा नष्ट समूल देव हो या कोई भी;

जिस भी घर में नारी का सम्मान रहेगा,

उस घर का निज देश जाति में मान रहेगा;

इसीलिए हे गौरी अब निज क्रोध तजो तुम,

भजो भजो, हे देवो! जय जय उमा भजो तुम।”

लगे देव सब कहने जय जय खप्परवाली,

करो कृपा हम सबपर महाकाल की काली।

हे अम्बे, जगदम्बे, हे जगमाता जय हो,

हे परमेश्वरि, शिवे, आदिशक्ती जय जय हो;

शांत करो निज क्रोध दया तुम दिखलाओ माँ,

करो सृष्टि पर कृपा पुत्र को दुलराओ माँ।

आगे बढ़े गणेश और फिर बोले माता,

हो जाओ अब शान्त दयामयि! हे जगमाता!

सुने पुत्र के वचन मधुर तो माता पिघलीं,

काली रूप तजा औ’ बनकर गौरी निकलीं;

बोलीं जगमाता तब सब से, “हे बड़भागी,

हुए आज तुम सब बालक-हत्या के भागी;

इसका प्रायश्चित तुम सबको करना होगा,

देवों की महिमा को जीवित रखना होगा।”

सभी देवता कर प्रणाम माँ को बोले तब,

हमसे पहले गणपति की पूजा होगी अब;

यज्ञ भाग सबसे पहले गणपति का होगा,

गणपति की पूजा बिन सबकुछ निष्फल होगा;

हैं गणेश अब से ही सर्वाध्यक्ष सुरों के,

पूज्य आज से देव, नरों, अक्षों, असुरों के।

सब बच्चों में प्रभो स्वयं अब वास करेंगे,

बालक सेवा करने से दुख नाश करेंगे;

बालक की मुस्कान हमें नित ऊर्जा देगी,

बालक दुख में दरिद्रता ही वास करेगी;

पूजा सबसे बड़ी, हँसी नन्हें बालक की,

बाकी सारी पूजा इसके बाद है आती।

नारी का सम्मान सिखा देवों को माता,

हुईं प्रसन्न देख बालक-ईश्वर का नाता।

 

गौरीसुत का तेजमय, सुन्दर मुख अवलोक।

वर दे निज सामर्थ्य के, गए सभी निज लोक॥

 

नारी का सम्मान औ’ हर बालक को प्यार।

करता जो भी जन, सदा, पाता खुशी अपार॥

 

हर्षित थे भोले बहुत, पूर्ण हुआ यह काम।

प्रथम पूज्य के रूप में, स्वीकृत गणपति नाम॥

 

xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx

 

जय गणेश - सर्ग २ - उपसर्ग १

छंद : घनाक्षरी

 

खेल रहे कार्तिकेय, संग में गणेश जहाँ,

बाल लीला वह मात, पिता मन मोहती;

लाड़-प्यार बालकों पे, बढ़ता ही जा रहा था,

खुश थीं जगतमाता, खुश थे उमापती।

तात-मात भक्ति में ही, गुजारते वक्त दोनों

शुक्ल-पक्ष-चन्द्र-सम, बढ़ते महाव्रती;

देखते ही देखते थे, युवा हुए पुत्र दोनों,

देखकर प्रमुदित, थे महेश व सती।।

 

एक दिन बैठकर, सोचा मात-पिता ने ये,

हो गये विवाह योग्य, सुत ये हमारे हैं;

प्रथम विवाह करें, किसका ये सोच सोच,

चिंतित थे शिव-शिवा, दोनों सम प्यारे हैं।

दोनों पुत्रों को बुलाया, और बोले महाकाल,

खेलने के दिन अब, बीते ये तुम्हारे हैं;

किसका विवाह शिवा, कहती हैं पहले हो,

मेरे तो ये दोनों पुत्र, दोनों नेत्र-तारे हैं।

 

तात की मधुर वाणी, सुनकर झटपट,

एक साथ बोले दोनों, मेरी बात मानिए;

पहले विवाह मेरा, शीघ्रता से निबटा के,

दूसरे को फुरसत, से ही प्रभु ठानिए।

यह सुन माता पिता, दोनों ही अचम्भित थे,

बोलीं उमा शंकर से, समस्या ही जानिए;

पहले विवाह प्रभु, किसका करेंगे हम,

समाधान कोई अब, आप ही निकालिए।

 

सोचकर थोड़ी देर, बोल पड़े महाकाल,

उमा एक समाधान, आया है दिमाग में;

फिर पुत्रों से वे बोले, एक शर्त है ये मेरी,

ध्यान देके सुनो इसे, गुनो मन-बाग में।

तुम दोनों धरती का, चक्कर लगाने जाओ,

रुकना कहीं भी नहीं, देर ना हो मार्ग में;

जो भी जल्दी पहुँचेगा, शादी हम कर देंगे,

कमी न लगेगी किसी, को भी अनुराग में।

 

जय गणेश - सर्ग २ - उपसर्ग २

 

निकल पड़े सुन कार्तिकेय लेकर मयूर तब,

लगे सोचने गणपति मुझको क्या करना अब?

मैं गजबदन और मेरा मूषक वाहन है,

कैसे जीतूँगा मैं डरता मेरा मन है?

गति मयूर की मूषक से अत्याधिक होगी,

पैदल चलकर परिक्रमा मुझसे ना होगी;

इस हालत में मुझे धैर्य रखना ही होगा,

कुछ ना कुछ मुझको विशेष करना ही होगा,

फिर जब सोचा महाबुद्धिशाली गणपति ने,

उनको मार्ग सुझाया उनकी निश्छल मति ने,

तब गणपति बोले भोले से इधर आइये,

हे प्रभु! माता संग आसन पर बैठ जाइये,

मुझे आप दोनों की अब पूजा करनी है,

मेरे लिए पिता औ’ माता ही अवनी हैं;

यह सुन बैठ गये आसन पर गौरी-शंकर,

गणपति उठे उमा-शिव की बहुविधि पूजा कर,

प्रदक्षिणा दोनों की सात बार कर डाली,

बोले फिर, “जय महाकाल, जय हो माँ काली;

मेरा शुभ विवाह अब जल्दी से कर दीजै,

है यह अति शुभ कार्य न इसमें देरी कीजै।”

यह सुन बोले महाकाल, “अवनी का चक्कर,

आओ कार्तिकेय से पहले हे सुत लेकर;

तभी विवाह तुम्हारा पहले हो पाएगा,

वरना कार्तिकेय ही बाजी ले जाएगा।”

यह सुन गणपति बोले, “जय हो शंभु भवानी,

आप लोग तो सभी ज्ञानियों के भी ज्ञानी।

परिक्रमा मैंने है सात बार कर डाली,

अवनी से बढ़कर हैं महाकाल औ’ काली;

वेद शास्त्र सारे बस ये ही तो कहते हैं,

मात-पिता सेवा में तीर्थ सभी रहते हैं,

जो कोई भी माता-पिता की पूजा करता,

सर्व देव पूजा का उसको फल है मिलता,

जो नर मात पिता की परिक्रमा है करता,

पृथ्वी-परिक्रमा सा ही उसको फल मिलता,

मात-पिता को दुख दे जो पुण्यार्जन करता,

महापाप का सदा सर्वदा भागी बनता,

अन्य तीर्थ तो दूर बहुत होते हैं माता,

किन्तु तीर्थ ये सदा पास ही में है रहता,

या तो कहिए सारे वेद शास्त्र झूठे हैं,

या फिर कहिए आप आज मुझसे रूठे हैं,

वरना आज धर्म के हित यह निर्णय लीजै,

जल्दी से अब मेरा शुभ विवाह कर दीजै।”

यह सुन बोले महाकाल, “हे सुत महान तू,

धर्माचारी, आत्मबली औ’ बुद्धिमान तू,

सारा ही है सत्य, कहा है जो कुछ तूने,

योग्य प्रथम पूजा का खुद को साबित तूने,

आज कर दिया, हे गणेश, ओ धर्मपरायण,

गर्वित तुझपर आज देव, शिव, विधि, नारायण।

अब विवाह तेरा ही होगा प्रथम गजवदन,

शीघ्र लगेंगे तुझको हल्दी, रोली, चन्दन।”

 

जय गणेश - सर्ग २ - उपसर्ग ३

 छंद : चौपाई

 

समाचार यह फैला ऐसे । आग लगी जंगल में जैसे॥

विश्वरूप तक बात गयी जब । परम सुखी हो आये वे तब॥

उनकी कन्याएँ थीं सुन्दर । खोज रहे थे कब से वे वर॥

वर सुयोग्य यह बात जानकर । आये देने निज दुहिता-कर॥

रिद्धि, सिद्धि कन्याएँ दो थीं । दोनों ही अति भाग्यवती थीं॥

विश्वरूप तब प्रभु से बोले । जय हो महादेव बम भोले॥

पुत्र आपके अति सुयोग्य हैं । कन्याएँ मम परम योग्य हैं॥

रिद्धि के लिये गणपति का कर । और सिद्धि को कार्तिकेय वर॥

देकर प्रभु अब तार दीजिए । मुझ पर यह उपकार कीजिए॥

मैंने यह संकल्प लिया है । दुहिताओं को वचन दिया है॥

तव विवाह शिवसुत से होगा । वचन नहीं यह मिथ्या होगा॥

बोले प्रभु विचार उत्तम है । पुत्र हमारे दोनों सम हैं॥

कार्तिकेय हैं विश्व भ्रमण पर । लौटेगें वह जल्दी ही पर॥

जैसे ही वह आ जायेंगे । द्वय विवाह हम कर पायेंगे॥

कार्तिकेय धरती का चक्कर । लौटे कुछ ही दिन में लेकर॥

स्नान किया औ’ बोले आकर । जय हो अम्बे जय शिवशंकर॥

शर्त कठिन थी, नहीं असंभव । प्रभु की कृपा करे सब संभव॥

यह सुन बोले महाकाल तब । पुत्र नहीं कुछ हो सकता अब॥

शर्त विजेता गणपति ही हैं । योग्य प्रथम परिणय के भी हैं॥

हम बस सकते हैं इतना कर । दोनों सँग सँग बन जाओ वर॥

पर पहले गणपति के फेरे । उसके बाद तुम्हारे फेरे॥

यह सुन कार्तिकेय थे चिंतित ।  खिन्नमना औ’ थे चंचलचित॥

चूहे ने है मोर हराया । ऐसा संभव क्यों हो पाया॥

फिर जब बैठे ध्यान लगाया । सब आँखों के आगे आया॥
बोले महादेव, हे सुत, तब । याद करो मेरी वाणी अब॥

मैंने बोला गुनना सुनकर । तुम भागे जल्दी में आकर॥

बिना गुने तुम दौड़ पड़े थे । गणपति फिर भी यहीं खड़े थे॥

बात गुनी तब यह था जाना । मूषक वाहन उनका माना॥

यह वाहन की थी न परीक्षा । ऐसी नहीं हमारी इच्छा॥

तन से दोनों हुए युवा हैं । मगर बुद्धि से कौन युवा है॥

यही जाँच करनी थी हमको । और सिखाना था यह तुमको॥

तन-मन-बुद्धि और निज अंतर । से जब तक न युवा नारी नर॥

तब तक है विवाह अत्यनुचित । नहीं बालक्रीड़ा विवाह नित॥

विश्व भ्रमण कर हो तुम आये । तरह तरह के अनुभव पाये॥

इसीलिए तुम भी सुयोग्य अब । जाने यह अवसर आये कब॥

तैयारी विवाह की कर लो । मन में अपने खुशियाँ भर लो॥

बोले कार्तिकेय तब माता । बात उचित है गणपति भ्राता॥

बुद्धिमान हैं ज्यादा मुझसे । लेकिन मैं अग्रज हूँ उनसे॥

प्रथम पाणि वह ग्रहण करेंगे । तो मेरा अपमान करेंगे॥

इसीलिए लेता हूँ प्रण मैं । सदा कुमार रहूँगा अब मैं॥

समाचार जैसे ही पाया । विश्वरूप चिंतित हो आया॥

बोला आकर जय शिव-काली । मेरा वचन जा रहा खाली॥

दुहिताओं को वचन दिया था । मान इन्हें दामाद लिया था॥

अब क्या होगा हे शिव शंकर । दोनों ही चाहें शिव-सुत वर॥

नहीं अन्य को वरण करेंगी । हो हताश निज प्राण तजेंगी॥

कुछ करिए हे भोले शंकर । प्राण बचें दुहिताओं के हर॥

ध्यानमग्न हो शंकर भोले । है उपाय यह केवल बोले॥

दोनों ही शिव-सुत पाएँगी । गणपति से ब्याही जायेंगी॥

 

जय गणेश - सर्ग २ - उपसर्ग ४

 

सजने लगे तोरण तथा बहु वाद्य भी बजने लगे,

बहु रंग के बहु ढंग के फिर फूल भी खिलने लगे।

क्यों ना बहे मारुत मलय वन की लिये परिमल वहाँ,

ऋतुराज को लेकर मदन स्वयमेव ही आया जहाँ।

कैलाश जो हिम से ढका था, पुष्प आच्छादित हुआ,

औ’ मान सरुवर जो जमा था, गला, आह्लादित हुआ।

फिर नाचने निशिकर महाप्रभु की जटाओं में लगा,

आया सुदर्शन छोड़ कर हरि को सभी में भ्रम जगा।

थीं झूमने गंगा लगीं हर की जटाओं में खिलीं,

यूँ नाचते थे व्याल सारे महामणि मानों मिली।

नंदी सजे, भृंगी सजे, बारात सारी सज रही,

दुंदुभि बजी, तुरही बजी, मुरली तो बजती ही रही।

विधि आ गये, हरि आ गये, सब देवगण भी आ गये,

कितने ही सारे इंद्रधनुषी रंग नभ पर छा गये।

थीं डाकिनी भी, भैरवी भी, और आये भूत भी,

भैरव वहाँ थे, प्रेत भी थे, अक्ष भी, अवधूत भी।

बहु भाँति के मिष्ठान्न थे, औ’ शबर्तों के हौज ही,

सब खा रहे थे, पी रहे थे, कर रहे थे मौज ही।

जगदम्बिका थीं घूमती, थीं देखतीं तैयारियाँ,

उनके हृदय में खिल रहीं थीं कमल की सौ क्यारियाँ।

शोभा महागणधीश की सब देखकर नजरें गड़ीं,

मस्तक मुकुट था स्वर्ण का जिसमें बहुत मणियाँ जड़ीं।

बहु रंग की किरणें निकलकर मुकुट पर थीं पड़ रहीं,

माथे लगे चंदन तिलक को अधिक शोभित कर रहीं।

कानों में था कुंडल सजा, थी कमर में करधन सजी,

सुन्दर कलाई में बँधे थे स्वर्ण बाजूबंद भी।

आँखों में था काजल सजा, औ’ शुण्ड का रंग लाल था,

थी गले में इक स्वर्णमाला, उदर लिपटा व्याल था।

इक हाथ में पुस्तक सजी, औ’ दूसरे में फूल था,

था तीसरे में स्वर्ण अंकुश, चौथे में तिरशूल था।

रोली कपोलों पर लगी, पैरों महावर जँच रही,

थीं मुद्रिकाएँ रत्न वाली अँगुलियों में सज रहीं।

शोभित बहुत थे विघ्नहर्ता पीतवर्णी वसन थे,

इस रूप का दर्शन मिला तो देवगण सब मगन थे।

फिर चल पड़ी बारात औ’ बजने लगीं शहनाइयाँ,

थी मगन धरती, मगन अम्बर, झूमतीं पुरवाइयाँ।

थे नाचते विधि हरि महा उल्लास से, उत्साह से,

औ’ खींचते नटराज को मिल पकड़कर वे बाँह से।

नटराज भी तब हर्ष से नर्तन वहाँ करने लगे,

करते हुए त्रिदेव नर्तन भक्त मन हरने लगे।

बारात पहुँची शीघ्र ही अपने महागन्तव्य पर,

सबने किये आसन ग्रहण हों भूत, भैरव, या कि नर।

बहु भाँति के स्वादिष्ट पेयों से किया स्वागत गया,

मिष्ठान्न थे बहु भाँति के, औ’ स्वाद सबका था नया।

था तिलक गणपति का किया वधु पक्ष ने फिर चाव से,

थीं गान मंगल गा रहीं सब नारियाँ सुख भाव से।

फिर द्वारपूजा हेतु गणपति ने ग्रहण आसन किया,

बारातियों में प्रमुख जो थे पास में आसन लिया।

तब ब्राह्मणों ने द्वारपूजा प्रेम से संपूर्ण की,

औ’ इस तरह बारातियों की प्रथम इच्छा पूर्ण की।

जयमाल हेतु विशाल मंडप पास में ही था सजा,

गणपति गये, जाकर वहाँ जय जय उमा जय शिव भजा।

फिर रिद्धि-सिद्धी अन्य सखियों सँग वहाँ पर आ गईं,

आते ही वो दोनों महागणधीश उर पर छा गईं।

दो चन्द्रमा, दो फूल, दो तितली कहें या दो ग़ज़ल,

दो सूर्य थे, दो स्वर्ण परियाँ, या कि सोने के कमल।

थे धन्य गणपति संगिनी पा रिद्धि-सिद्धी सी जहाँ,

उत्साह से सबने दिये आशीष वधुओं को वहाँ।

फिर रस्म शादी की निभाने के लिए मंडप सजा,

तो आ गईं सखियाँ वधू की लेने दूल्हे का मजा।

गोदान, कन्यादान, मर्यादाकरण जब हो गया,

तब हाथ कन्याओं का गणपति हाथ में सौंपा गया,

फिर ग्रन्थिबन्धन था हुआ, थीं मगन सारी शालियाँ,

सब झूमतीं थीं प्रेम से औ’ गा रहीं थीं गालियाँ।

फिर प्रतिज्ञाएँ वर वधू मिलकर वहाँ लेने लगे,

औ’ इस तरह बारातियों को मोद वे देने लगे;

“अर्धांगिनी हैं आज से ये उभय कन्याएँ मेरी,

निज अंग सम रक्षा करूँगा ये प्रतिज्ञा है मेरी;

इनके सुझावों को सुनूँगा तब करूँगा काम मैं,

हूँ दे रहा इन दोनों को गृहलक्ष्मी का नाम मैं;

स्वीकार मुझको आज से गुण दोष इनके हैं सभी,

संतोष है मुझको, करूँगा क्रोध इनपर ना कभी;

बन मित्र दोनों का रहूँगा आज से मैं सर्वदा,

तन और मन से बस इन्हीं दोनों को चाहूँगा सदा;”

जब इस तरह गणपति की पूरी सब प्रतिज्ञाएँ हुईं,

उद्धत कसम लेने को तब दोनों ही कन्याएँ हुईं;

“अर्द्धांगिनी बनकर रहेंगी आज से हम नाथ की,

प्रभु जहाँ भी ले जाएँ हमको जाएँगीं हम साथ ही;

परिवार सम पति परिजनों को आज से हम मानतीं,

पति प्रगति और विकास में हम साथ देंगी ठानतीं;

अपमान पति का ना करेंगी हम कहीं भी औ’ कभी

निर्देश प्रभु जो प्रेम से देंगे वो मानेंगी सभी;”

तब शिलारोहण था हुआ औ’ भाँवरें पड़ने लगीं

फिर आगे आगे दोनों कन्याएँ वहाँ चलने लगीं;

कुल चार चक्कर सभी ने इस भाँति से पूरे किए

बाकी की तीनों भाँवरों में गजवदन आगे रहे;

नारी प्रथम आगे चलेगी भाँवरों में अब सदा

वर्चस्व, पद, गौरव बड़ा है नारियों का सर्वदा;

फिर सप्तपदी समाप्त होकर पाद प्रक्षालन हुआ

इन दोनों ही के बीच में स्थान परिवर्तन हुआ;

कन्याएँ दोनों गणपती के वाम में तब आ गईं

औ’ इस तरह से रस्में शादी की सभी पूरी हुईं।

पति संग में जब विदा होने की घड़ी आने लगी,  

माता पिता से बिछुड़ने पर पुत्रियाँ रोने लगीं।

बोले पिता कुल मान रखना बेटियों तुम सर्वदा

भोले उमा को ही पिता माता समझना अब सदा।

निज अश्रुओं को रोकने में माँ मगर असमर्थ थीं

बातें उन्होंने पुत्रियों के पास आकर यह कहीं।

 

डाली से

बिछड़ी कली है

ये मंदिर चली है

समर्पित

राम को

 

आँसू

खुशी और गम से

किए जाते नम से

जननि के

धाम को

 

बिटिया

जहाँ भी जाना

सदा चमकाना

पिता के

नाम को

 

जय गणेश - सर्ग २ - उपसर्ग ५

छंद : दोहा


मत अपने को मानिए, सर्वसिद्ध बलवान।

कई बार हारे स्वयं, भोलेनाथ महान॥

 

नहीं योजना बना कर, शुरू किया जो काम।

कितना भी तुम श्रम करो, नहीं मिले परिणाम॥

 

मात पिता आशीष से, मिलें रिद्धि औ’ सिद्धि।

इनको दुख देकर कहो, किसको मिली प्रसिद्धि॥

 

पिता, मात, गुरुजन, स्वजन, पुरजन, परिजन, देव।

जन्में स्नेहाशीष से, शुभ औ’ लाभ सदैव॥

 

खंडकाव्य जय गणेश समाप्त

रचनाकार : धर्मेन्द्र कुमार सिंह ‘सज्जन’

Views: 1292

Replies to This Discussion

दिखा रहे धर्मेंद्रजी, शास्त्र जनित आयाम ।

आध्यात्म-विज्ञान रचें संभव सम्यक ज्ञान॥

 

जो मित्रगण इसे पढ़ने में रुचि लें वो कृपया इसमें उपस्थित गलतियों को भी इंगित कर दें, ताकि उन्हें सुधारा जा सके।

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on मिथिलेश वामनकर's blog post कहूं तो केवल कहूं मैं इतना: मिथिलेश वामनकर
"बेहतरीन 👌 प्रस्तुति सर हार्दिक बधाई "
4 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक मधुर प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सहमत एवं…"
4 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .मजदूर
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
4 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपकी स्नेहिल प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
4 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
4 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक ..रिश्ते
"आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार आदरणीय"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"आ. भाई आजी तमाम जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। उत्तम गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
5 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on AMAN SINHA's blog post काश कहीं ऐसा हो जाता
"आदरणीय अमन सिन्हा जी इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें। सादर। ना तू मेरे बीन रह पाता…"
8 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on दिनेश कुमार's blog post ग़ज़ल -- दिनेश कुमार ( दस्तार ही जो सर पे सलामत नहीं रही )
"आदरणीय दिनेश कुमार जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल कीजिए। इस शेर पर…"
8 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया .... गौरैया
"आदरणीय सुशील सरना जी बहुत बढ़िया प्रस्तुति हुई है। हार्दिक बधाई। गौरैया के झुंड का, सुंदर सा संसार…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on AMAN SINHA's blog post यह धर्म युद्ध है
"आदरणीय अमन सिन्हा जी, इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर"
9 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service