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आदरणीय काव्य-रसिको !

सादर अभिवादन !!

 

’चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव का यह एक सौ बयालिसवाँ आयोजन है.   

 

पुनः इस बार का छंद है - कुकुभ छंद  

आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 

18 फरवरी 2023 दिन शनिवार से 

19 फरवरी 2023 दिन रविवार तक

हम आयोजन के अंतर्गत शास्त्रीय छन्दों के शुद्ध रूप तथा इनपर आधारित गीत तथा नवगीत जैसे प्रयोगों को भी मान दे रहे हैं. छन्दों को आधार बनाते हुए प्रदत्त चित्र पर आधारित छन्द-रचना तो करनी ही है, दिये गये चित्र को आधार बनाते हुए छंद आधारित नवगीत या गीत या अन्य गेय (मात्रिक) रचनायें भी प्रस्तुत की जा सकती हैं.

केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.  

कुकुभ छंद के मूलभूत नियमों से परिचित होने के लिए यहाँ क्लिक करें

जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के  भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती है.

*********************************

आयोजन सम्बन्धी नोट 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 

18 फरवरी 2023 दिन शनिवार से  19 फरवरी 2023 दिन रविवार तक  रचना-प्रस्तुति तथा टिप्पणियों के लिए खुला रहेगा.

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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम 

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Replies to This Discussion

आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। छंदों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।

बहुतल भवनों की चुनौतियों और खतरों पर अच्छी छंद रचना।  बधाई आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी

आदरणीय लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’ जी. आयोजन में आपकी सतत उपस्थिति आश्वस्तिकारी है. चित्र को सहज शाब्दिक करना मुग्धकारी है. 

यह अवश्य है कि विधान के हवाले से आपका ध्यान अवश्य आकृष्ट करना चाहूँगा. 

निम्नलिखित छंद कुकुभ छंद में निबद्ध नहीं है. ..

नयी सभ्यता कहकर सब ने, एक अनौखा रूप गढ़ा।
गगन चूमते भवनों का ही, जिसमें बढ़चढ़ पाठ पढ़ा।।
भले कामना है जीवन में, भर जाये हर खुशहाली।
किन्तु मौत की छाया काली, जिसे समझती दीवाली।।

आपकी रचना के लिए हार्दिक बधाई. 

शुभ-शुभ

कुकुभ छंद 

+++++++++

ये घर नहीं हैं घोसलें हैं, नभ को छूने वाले हैं।

रहते जहाँ इंसान सच्चे, मन के भोले भाले हैं॥

सभी धर्म के सभी प्रांत के, सबके रंग निराले हैं।

मिलकर रहते हैं सारे पर, सबके ढंग निराले हैं॥

 

काम का समय अलग सभी का, आठ पहर रौनक रहती।

फुरसत में जुटती महिलायें, सुनती कुछ अपनी कहती॥

भव्य गगनचुंबी भवनों में, सिमट गई दुनिया सारी।

सुख दुख में सबकी होती है, आपस में भागीदारी॥

हवा रोशनी औ’ पानी की, कमी भवन में रहती है।

सुने भवन मालिक ना शासन, जनता सब कुछ सहती है॥

फिर भी कष्ट भूलकर सारे, महानगर में बसते हैं।

काम मिला या मिल जाएगा, यही सोच सब सहते हैं॥  

 

आग किसी तल में लग जाये, ऊपर जल्दी उठती है।

अग्नि शमन दल की कोशिश भी, कुछ मंजिल तक रहती है॥

बचा न कुछ सामान किसी का, चले गये कुछ धरती से।

सब कुछ स्वाहा हो जाता है, किसी एक की गलती से॥

......................... 

मौलिक अप्रकाशित

 

   

आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। चित्रानुरूप सुन्दर छन्द हुए हैं। हार्दिक बधाई।

आदरणीय लक्ष्मण भाईजी

प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद आभार आपका। 

बहुत सुंदर रचना अलहिलेश जी। वाक़ई गगनचुंबी इमारतों में रहने के दोनों पक्षों को समझना आवश्यक है। आपने उस पक्ष को सामने लाने का काम किया जिस पर एचएम कलम नहीं चलाते 

आदरणीय अजय भाईजी

प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद आभार आपका। 

काम मिला या मिल जाएगा, यही सोच सब सहते हैं॥//वाह्ह बिल्कुल सही ..बधाई इस चित्रानुकूल सटीक सृजन पर आदरणीय अखिलेश जी

आदरणीया प्रतिभाजी

प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद आभार आपका। 

आदरणीय अखिलेश भाईजी, 

आपकी रचनाओं में ऐसे बिन्दु अवश्य होते हैं कि एकबारगी मन वाह कर उठता है. निम्नलिखित छंद इसी श्रेणी का है. 

आग किसी तल में लग जाये, ऊपर जल्दी उठती है।

अग्नि शमन दल की कोशिश भी, कुछ मंजिल तक रहती है॥

बचा न कुछ सामान किसी का, चले गये कुछ धरती से।

सब कुछ स्वाहा हो जाता है, किसी एक की गलती से॥ ............ वाह-वाह. सार्थक चर्चा की है आपने. और सत्य चित्र उभारा है. 

चरण काम का समय अलग सभी का, को शुद्ध रूप से यों निबद्ध करना उचित होगा, समय काम का अलग सभी का  

सुने भवन मालिक ना शासन, .....  ’सुने’ नहीं ’सूने’. इस लिहाज से विषम चरण की मात्रा सही नहीं होगी. 

बहरहाल, आपकी रचना के लिए हार्दिक बधाई. 

शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ जी। कदाचित अखिलेश जी यहाँ “सुने” ही लिखना चाह रहें है कि जनता की न भवन-मालिक सुनता है न शासन।

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