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आदाब ,शिक्षा विमर्श पर संवाद शैली में अच्छी लघुकथा है! जान' गोरखपुरी भाई ! हरियाणी खड़ी बोली , कदाचित संवाद का यदि माध्यम है तो संवाद संशोधन चाहते हैं, बंधु ।
जी आ. चेतन प्रकाश सर मेरा प्रयास हरयाणवी बोली का ही था, जैसा कि महिला लिंगानुपात में देश मे सबसे पीछे हरियाणा ही है।आ. निवेदन है कि हरियाणवी के संवाद संशोधन आप सुझाये क्योंकि मुझे इसका सुना सुनाया ही ज्ञान है, मैं उस बेल्ट का नहीं हूं।सादर।
प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा। बधाई आदरणीय। शीर्षक पर आदरणीय उस्मानी जी की बात का संज्ञान लीजिये।
नमस्कार , आदरेया ! कश्मीर मे बह रही सुखद परिवर्तन की बयार का संदर्भ लेती अच्छी लघुकथा के लिए बधाई, सु श्री प्रभा पाण्डे ! संवाद शैली में लिखते समय कथोपथन की विश्वसनीयता हेेेतु बोली में पारंगत होना अनिवार्य है, प्रभा जी ! वंदे !
आदरणीय मेरे विचार से इस सरल व सहज कथोपकथन में पात्र अनुसार या उस क्षेत्र अनुसार संवादों में क्षेत्रीय बोली की आवश्यकता नहीं लगती। क्षेत्र विशेष के लोग ऐसे सामान्य संवाद भी बोलते हैं। सादर।
हार्दिक आभार आदरणीय
आदाब। विषयांतर्गत बढ़िया लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। चिरपरिचित कथानक है।
हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी
आदरणीया प्रतिभा पाण्डे, विषयानुरूप बहुत अच्छी लघुकथा हुई है, हसीना बीबी का चरित्र बहुत स्पष्ट रेखांकित हुआ है, भुक्तभोगी रूप में बदलाव को स्वीकार अंगीकार करते हुए, मनमाने और रूढ़ियों की तरह बन चुके अंध विरोध की कट्टर धारा के विरोध में खड़ा हुआ यह पात्र कोटिशः बधाई योग्य है।
हार्दिक आभार आदरणीय
खाकी (लघुकथा) :
सोसाइटी में अपने फ्लैट के सामने बन रहे फ्लैटों में फ़र्श पर टाइल्स बिछाने का काम वह शिक्षक कुछ दिनों से देख रहा था। खाकी गत्तों में पैक हर टाइल्स खाकी काग़ज़ों में सुरक्षित लिपटा हुआ था। कारीगर और श्रमिक खाकी से टाइल्स पृथक कर खाकी काग़ज़ फैंकते जा रहे थे। कुछ तो उन्हें रौंदते भी रहते थे काम में व्यस्त रहते हुए। शिक्षक हर रोज़ टाइल्स को ओर उन खाकी काग़ज़ों को हर रोज़ देखकर उनकी नियति पर सोचता रहता था। उसी सिलसिले में वह यह देखता कि फ़र्श पर टाइल्स फिट हो जाने के बाद फ़्लैट के अन्य कामों के पहले टाइल्स सुरक्षित साफ़ रखने के लिए पन्नी बिछाई जा रही थी। पन्नी की दूसरी ओर चिपकी खाकी भी उतार कर वैसे ही फैंकी जाती थी, रौंदी जाती थी या निर्दयतापूर्वक कुड़ेदान में डाल दी जाती थी। खाकी काग़ज़ का थान यूं ही बरबाद हो रहा था।
"सोच रहा हूँ उनकी रक्षा करूँ और उनका इस्तेमाल कर लूँ कॉपी-किताबों में कवर चढ़ाने के लिए!" एक दिन शिक्षक ने अपनी युवा बेटी से कहा।
"कैसी बातें करते हैं, पापा! सोसाइटी के लोग और वे मज़दूर क्या सोचेंगे! ... सीसीटीवी सब देख रहा है न! हरग़िज़ मत जाना वहाँ।" बेटी ने अपनी मॉम की तरफ़ देखकर कहा।
"खाकी की दुर्दशा देखी नहीं जाती। रक्षा कवच है। यूँ बरबादी ठीक नहीं!" शिक्षक ने अपनी पत्नी से कहा।
"तुम्हें क्या मतलब! अपने काम से काम रखो! अपने स्टेटस का कुछ तो ध्यान रखो! होने दो बरबाद खाकी काग़ज़ को!" पत्नी ने झुँझलाकर कहा।
शिक्षक से रहा न गया। एक कारीगर को इशारे से नज़दीक़ बुला कर कहा, "यह जो मोटा सा चिकना सा खाकी काग़ज़ निकल रहा है न, इसे बच्चों की कॉपी-किताबों में चढ़ाने के काम लिया जा सकता है। तुम लोग बच्चों के लिए ले जाया करो न!"
"साहब, हम कैसे कुछ ले जा सकते हैं! वैसे भी हमारे यहाँ पढ़ने-लिखने वाला है ही कौन!" दूसरा कारीगर बोल पड़ा।
"नहीं भाई, ये मासाब हैं। सही कह रहे हैं। यह खाकी बड़े काम की चीज़ है! इसके कई इस्तेमाल हो सकते हैं... समझ सको, तो!" पहले वाला कारीगर बोला और शिक्षक की ओर देखते हुए खाकी काग़ज़ को लपेटने लगा।
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