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मेरे ज़रूरी काम / अतुकांत कविता / चंद्रेश कुमार छतलानी

जिस रास्ते जाना नहीं

हर राही से उस रास्ते के बारे में पूछता जाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

जिस घर का स्थापत्य पसंद नहीं

उस घर के दरवाज़े की घंटी बजाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

कभी जो मैं करता हूं वह बेहतरीन है

वही कोई और करे - मूर्ख है - कह देता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

मुझे गर्व है अपने पर और अपने ही साथियों पर

कोई और हो उसे तो नीचा ही दिखाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

मेरे कदमों के निशां पे है जो चलता

उसे अपने हाथ पकड कर चलाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

और

 

मेरे कदमों के निशां पे जो ना चलता

उसकी मंज़िलों कभी खामोश, कभी चिल्लाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

मैं कौन हूँ?

मैं मैं ही हूँ।

लेकिन मैं-मैं न करो ऐसा दुनिया को बताता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by vijay nikore on March 5, 2020 at 5:58pm

रचना अच्छी लगी। बधाई, मित्र चंद्रेश जी।

Comment by Samar kabeer on February 28, 2020 at 11:34am

जनाब चंद्रेश जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

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