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एक बोझ भरी गठरी: लघुकथा

एक तो पिछला कर्ज ही अभी तक माफ नहीं हुआ था उस पर इस बार फिर फसल के चौपट होने और साहूकार के ब्याज की दोहरी मार उसके लिए असहनीय थी, घर में सभी को कुपोषण और बीमारी ने घेर रखा था। इस बार ना तो मदद को सरकार थी, ना ही लोग।

आखिरकार उसने शहर जाकर मजदूरी या कुछ और कर कमाने का फैसला लिया और जब वह लगभग नग्न बदन, एक बोझ भरी गठरी जिसमें कुछ सुखी रोटी और प्याज थी, लेकर , शहर के चौराहे नुमा पुल पर पहुंचा तो उसने पाया की उसके लिए सभी रास्ते बंद हैं और अवसाद ग्रस्त होकर उसने उसी पुल से नीचे खाई में छलांग लगाकर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर ली।


(c) हरि प्रकाश दुबे

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 23, 2019 at 7:35pm

आ. हरिप्रकाश जी, अच्छी कथा हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on January 21, 2019 at 11:34am

जनाब हरिप्रकाश दुबे जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 20, 2019 at 7:11am

आदाब। कड़वा सत्य, किंतु नकारात्मक संदेश देती विचारोत्तेजक रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय हरिप्रकाश दुबे साहिब।

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