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कलियुग में भी सतयुग !

सुना है
सभ्यता सबसे पहले
यहीं आई,
पड़ी है अब खंडहरों सी
पिछवाड़े में जमीन्दोस है
खुदाई में दिखती है
शर्म खरपतवार सी
बेशर्मी की
हरीभरी क्यारियों में
अपने वजूद को रोती है
इंसानियत
चेहरों की हवाइयों सी उड़
उलटी जा लटकी
अँधेरी सुरंग में

सच तो अब
पन्नो में ही पलता है
इंसान
मरने से पहले
जिन्दा जलता है
रिअलिटी का तो अब,
सिर्फ शो होता है
परिवार तो
हम और
हमारे दो होता है
मातृत्व यहाँ
दूर खड़ा रोता है
माँ-बाप की जगह
सास-ससुर ने ले ली
भाई बहन तो अब
साला-साली है
बुजुर्गों की जगह
आश्रम में खाली है
फ्रिज, कूलर, मोटर, बंगला
सब है, मगर;
इंसानियत
कुत्तों ने पाली है
शराफत
यूज एंड थ्रो जानी जाती है
केवल मौकों पर ही
नज़र आती है

वो कहते हैं
भैया योग करो
हरी पत्तियों का
उपभोग करो
थोडा भजन करो
सत्य को जानो !
इश्वर को पहचानो !
परम ज्योति के
दर्शन होंगे
कौन समझाए?
भूखे पेट
भजन कैसे गायें ?
पेट के अँधेरे को
कैसे जगमगायें ?
पलदारी में
पीठ अन्न ढ़ोती है
आंतें सुन्न रोती है
बच्चों की कमीज़ फटी है
आंतें पीठ से सटी है
नारों के भजन सुनते हैं
भूख का योग करते हैं
भूखे पेट
नींद भी आँखें चुराती है
हमे तो रोटी ही
सत्य नज़र आती है
भरा हो पेट तो
कलियुग में भी
सतयुग के दर्शन कराती है
अंधरों में भी
पूनम का
चाँद नज़र आती है

*******

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Comment by Sanjay Kumar Singh on August 28, 2010 at 5:33pm
kalyug aur satyug sab yahi par dikh jata hai, achchi rachna hai,dhanyavaad,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 28, 2010 at 5:02pm
माँ-बाप की जहग
सास-ससुर ने ले ली
भाई बहन तो अब
साला-साली है
बुजुर्गों की जगह
आश्रम में खाली है
फ्रिज, कूलर, मोटर, बंगला
सब है, मगर;
इंसानियत
कुत्तों ने पाली है

रिश्तों के नए गूंथते ताने बाने का बहुत ही सुन्दर विश्लेषण|

नारों के भजन सुनते हैं
भूख का योग करते हैं
तथाकथित सभ्य समाज का कच्चा चिटठा खोलती हैं ये पंक्तियाँ|
एक सार्थक कविता है|
एक दो जगह वर्तनी की तथा एक जगह व्याकरण की त्रुटियाँ दूर कर लें|
Comment by आशीष यादव on August 28, 2010 at 5:00pm
व्यास जी प्रणाम,
आज की दुनिया मुखरित हो रही है| आपने सारा सत्य उड़ेल कर रख दिया है| हकीकत भी बिलकुल यही है|
Comment by Kanchan Pandey on August 28, 2010 at 2:26pm
Achchi aur dil ko chhuti hui kavita lagi, thx

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 28, 2010 at 10:25am
वोह! सत्य को नंगा करती एक बेहतरीन काव्य कृति, सभ्यता खुदाई मे मिलती है, भाई बहनों का जगह साला साली ने ले ली है और पोल्दारों की पीठ अन्न ढोती है पर उनकी अतडिया सुन्न रहती है, क्या बेहतरीन सोच और दूरदर्शिता है, शायद इसी दूरदर्शिता पर किसी ने कहा होगा की जहा न पहुचे रवि वहा पहुचे कवि, इसी कथन को सत्यार्थ करती हुई रचना, बहुत बहुत बधाई नरेन्द्र व्यास जी इस अनुपम कृति के लिये,

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