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1222-1222-1222-1222

जो आई शब, जरा सी देर को ही क्या गया सूरज।
अंधेरे भी मुनादी कर रहें घबरा गया सूरज।

चमकते चांद को इस तीरगी में देख लगता है,
विरासत को बचाने का हुनर समझा गया सूरज।

उफ़क तक दौड़ने के बाद में तब चैन से सोया,
जमीं से भी जो जाते वक्त में मिलता गया सूरज।

तुम्हें रोना है जितनी देर, रो लो शाम का रोना,
मगर दीपक की बाती पर सिमट कर आ गया सूरज।

वो आईना दिखाने में बहुत मसरूफ़ थे लेकिन,
बिना बोले इधर बे-इंतिहा हंसता गया सूरज।

बहुत महंगी पड़ी मौका परस्ती बादलों को भी,
उन्हीं को चीर के जब रौशनी फैला गया सूरज।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on Monday

जय हो, बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए सादर बधाई आदरणीय मिथिलेश जी। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 7, 2025 at 9:43pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद। बहुत-बहुत आभार। सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 28, 2025 at 4:45am

आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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