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शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212
****
केश जब तब घटा के खुले रात भर
ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।।
*
देख सावन के आँसू छलकने लगे
और जुगनू  हुए  चुलबुले रात भर।।
*
हाल अपना मगर इसके विपरीत था
नैन  डर  से  रहे  अधखुले  रात भर।।
*
धार फूटी कहीं फोड़ पाषाण को
शेष रखने कुटी हम तुले रात भर।।
*
देख तारों को मद्धम जो इतरा गयी
दर्प उस  चाँदनी  के  घुले रात भर।।
*
खोल मन बिजलियाँ खिलखिलाती रहीं
कह गये  जैसे  घन   चुटकुले  रात भर।।
*
कोई बादल  तो  ऐसा भी बरसे यहाँ
गर्द नफरत की जिसमें धुले रात भर।।
**
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

Views: 44

Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 30, 2025 at 11:23pm

आ. भाई गिरिराज जी , सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 30, 2025 at 11:21pm

आ.भाई आजी तमाम जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 22, 2025 at 11:24am

वाह वा , आदरणीय लक्ष्मण भाई बढ़िया ग़ज़ल हुई है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

Comment by Aazi Tamaam on August 22, 2025 at 2:16am

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय बधाई हो

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