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ग़ज़ल-मिलती दुआ है

1222/122

1

 हुआ वो ही ख़फ़ा है

किया जिसका भला है

2

ज़माने को पता है

तू मेरा आश्ना है

3

बसर करना जहाँ में

हुआ दुश्वार सा है

4

ख़यालों का समंदर

किनारा ढूँढता है

5

जफ़ाओं का ये तुहफ़ा

किसी की बद-दुआ है

6

बिना उल्फ़त के जीना 

कसम से इक क़ज़ा है

7

मेरी ईमानदारी

प हर कोई हँसा है

8

ज़बाँ की तल्ख़ियाँ ही

बढ़ातीं फ़ासला है

9

है ख़ुशक़िस्मत वो 'निर्मल'

जिसे मिलती दुआ है

 

मौलिक व अप्रकाशित

 

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Comment

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Comment by Rachna Bhatia on September 6, 2021 at 3:22pm

आदरणीय समर कबीर सर् , मैं भी इसी शे'र को ठीक करना चाहती थी ।पर,हुआ नहीं। आपने बहुत अच्छा कर दिया।

बेहद शुक्रिय:।

Comment by Samar kabeer on September 6, 2021 at 11:39am

'घटाया कब उन्होंने

बढ़ाकर फ़ासला है'

यूँ कहें:-

'ज़बाँ की तल्ख़ियों ने

बढ़ाया फ़ासला है'

Comment by Rachna Bhatia on September 6, 2021 at 11:19am

आदरणीय मनोज कुमार अहसास जी सही कहा आपने। सुधरने की कोशिश कर रही हूँ।

Comment by Rachna Bhatia on September 6, 2021 at 11:18am

आदरणीय समर कबीर सर् नमस्कार। सर् फेयर में सुधार कर लेती हूँ।यहाँ एडिट करने से पोस्ट पैंडिंग में चली जाती है।

सर्,इस तरह से शे'र कर लें क्या

1222/122

घटाया कब उन्होंने

बढ़ाकर फ़ासला है

Comment by Samar kabeer on September 6, 2021 at 7:25am

मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, छोटी बह्र में ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।

'कसम से इक क़ज़ा है'

इस मिसरे में 'क़ज़ा' की जगह "सज़ा" शब्द उचित होगा ।

'कसम'--"क़सम"--कब सीखेंगी?

'ज़बाँ की तल्ख़ियाँ ही

बढ़ातीं फ़ासला है'

इस शे'र में 'तल्ख़ियाँ' शब्द बहुवचन होने से रदीफ़ 'है' की बजाय "हैं" हो रही है, सुधार का प्रयास करें ।

Comment by मनोज अहसास on September 5, 2021 at 10:56pm

नमस्कार आदरणीय ऐसा प्रतीत होता है कि आपने बहर के हिसाब से शब्दों को बिठाया है अभी आपको बहर पर मेरे ख्याल से और अधिक मेहनत करनी चाहिए बाकी भाव आपके बहुत अच्छे हैं और एक अच्छी गजल की बधाई आपको देता हूं

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