For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

दि फाइनल डेस्टीनेशन/ अंतिम पड़ाव - डॉ नूतन गैरोला

हम तुम रेल की बर्थ पर बैठे ठकड़ ठकड़ कितनी देर तक वो आवाजें सुनते रहे ...शायद तुम्हारे भीतर भी एक जीवन चल रहा था और मेरे भीतर भी पुरानी यादों का चलचित्र .... शायद उन यादों की कडुवाहट उनकी मिठास को सुनने वाला समझने वाला कोई न था .... कुछ जंगल हमारे साथ चलते थे और कुछ पेड़ पीछे छूटते जाते थे ... रात का चाँद भी रौशनी कम और परछाइयों को ही पैदा किये जा रहा था .. कम्पार्टमेंट की खिडकी से आती परछाइयाँ जो साथ थी और छूटती जा रही, चीजों के साथ बर्थ पर सरकती बनती बिगड़ती अनेकों परछाइयां ... पर वे थी कि मिट मिट कर फिर बन रही थी ... और वही कि हमारी  यादों की परछाइयाँ हमारा पीछा किये जा रही थी वनस्पत इसके ट्रेन की रफ़्तार तेज हुए जा रही थी ... इस ठकड़ ठकड़ के शोर के बीच भी कितनी अजीब खामोशी थी ... शायद तुम्हारी नजर मेरी नजर से टकरा गयी थी ... शायद तुम्हारे मेरे बीच पसर आया था वह २० साल का फासला ... कितना कुछ बदल गया था ... तुम भी तो बदल गए थे ..पर वही आँखें थी ... चेहरे पर खिंच आयी थी कुछ रेखाए जैसे वलय पेड़ के ... खामोशियाँ टूटना चाहती थीं ... और अँधेरे मे नजर यकायक टकरा जाती तो एक चमक उठती पर उतनी ही जल्दी धुंधली पड़ जाती .. शायद शब्द गले में ही फंसे जा रहे थे.. हिम्मत नहीं थी कुछ कह जाने की ... शायद तुम ही कहोगे कुछ दोनों यही सोचते और एक मौन फ़ैल जाता उनके बीच ... याद आया वो सुरमई अँधेरा और वो नीली झील .. जिसके किनारे कितने ही अधूरे वादे गूंजते रहे अधूरी हकीकत की तरह .. वो झील का चांदी सा पानी जिसमें  दो चेहरे साथ साथ हँसते थे ... उस रोज सब कुछ धूमिल हो गया जब झील का पानी आँखों मे ठहर गया और आँख से गिरते आंसूंओं से हर परछाई तार तार टूट गयी .. मुझसे किये वादे तुम्हारे फीके पड़ गए, जब पिता ने वादा किया अपने दोस्त के बेटे से .. और बिन पूछे सब मिठाई पिठाईं हो गयी, ऐसे में तुमने भी कब थामीं थी बाहें . एक त्यागी सिद्ध पुरुष की तरह कह दिया इसमें तुम्हारी भलाई है .. मैं आवाज लगाती रही और तुम मुंह मोड कर चले गए कभी न लौट आने के लिए ... मेरे आंसुओं से जो तरंगे उठी उस झील में, सुना कि किसी को अपना चेहरा फिर झील मे साफ़ नजर नहीं आया .. मेरी इच्छा क्या कभी किसी ने देखी, मेरे लिए क्या कभी किसी ने सोचा  .. मैं सिर्फ वस्तु थी, बोझा थी, आयात निर्यात का अनचाहा सामान, पीहर ससुराल के बीच, बेच दी गयी कम से कम दामों में, किसी तरह से हुई मेरी खरीद फरोख्त और तुमने सब कुछ जानते हुए भी तय वादों को तोड़, मेरा हाथ छोड़ दिया, मेरी भलाई की दुहाई दे कर, शायद यह तुम्हारे आक्रोश का एक रूप था, कि कैसे मैंने उस रिश्ते के लिए हाँ कर दी, लेकिन बेगुनाह मैं पिस गयी, किसी ने मेरी पसंद न पसंद पूछी ही नहीं थी और रिश्ता तय कर दिया था ........ अब इन बातों को कह कर भी क्या हासिल होगा .. न वह गुजरा वक्त आएगा, न आगे कुछ सुधरेगा ... शायद तुमने मुझे माफ कर दिया हो उस गुनाह के लिए जो मैंने नहीं किया ही नहीं था, इतने सालों मे मैंने तो तुम्हें माफ कर दिया है, तुम्हारी बेरुखी को भी  .. हां! बताना चाहती हूँ तुम्हें कि क्या तुमने वह झील देखी है? इतने बरसों बाद तुम उस शहर की ओर जाते दिख रहे हो, मैं तो ससुराल से कई बार वहाँ जा चुकी हूँ, या भेजी जा चुकी हूँ किसी न किसी मांग के साथ क्यूंकि ससुराल में घर को घर बनाए रखने के लिए अब मुझे पीहर हर दूसरे तीसरे महीने कुछ न कुछ उगहाना पड़ता है, पिता ने भी तो पहले कम से कम दाम मे मेरी बोली लगाई थी उसकी भरपाई ससुराल वाले ऐसे करवा रहे हैं, मैं ससुराल वालों के पराये घर की लड़की और पीहर वालों के पराई अमानत, पराई बहू बन कर ही रही   ... लेकिन हां बताना चाहती हूँ तुम्हें कि अब उस झील में पानी नहीं रह गया है वह मौसम की कड़क मार को झेल नहीं पाई| कुछ समय वह दलदल बनी रही कि जैसे अपनी हर इच्छित चीज को ऐसे डुबो दे अपने में कि वह उसे छोड़ कर बाहर न आ पाए, लेकिन ऐसा कुछ न हुआ और फिर वह पूरी तरह से सूख चुकी है ..... ....ओह! एक झटके के साथ रेल रुक गयी.. यह कोई छोटा मोटा स्टेशन है .. तुमने एक नजर मेरी ओर देखा लगा कि तुम सदियों से लंबे उन २० साल की बात कहना चाहते हो .. कहना चाहते हो कि तुम अभी भी मुझे उतना ही प्यार करते हो, मैं सुनने के लिए आतुर- तुम कहाँ थे इतने साल, कैसे थे और हाँ, हम इस बार एक ही शहर जा रहे हैं शायद, जहाँ मेरा पीहर और तुम्हारा पुस्तैनी मकान है, अब की बार उस झील के किनारे कुछ ताजा हवाएं चलेंगी कुछ बादल बरसेंगे उसका तट अपने पुराने साथियों को देख मुस्कुराएगा ओर दो चेहरे फिर खिलखिलाएंगे झिलमिलाएंगे  पानी पर ...... पर यह क्या? तुम उठे और सहज क़दमों से कम्पार्टमेंट से बाहर निकल लिए, ओ हां! वो तुम्हीं तो हो जो स्टेशन से बाहर निकल दूर होते जा रहे हो .. तुम्हें आवाज लगाने के लिए मैं बाहर की ओर दौडी तो स्टेशन से गाडी चल पड़ी ... कैसी विडम्बना है, कैसी मजबूरी की मुझे वापस चुपचाप अपने बर्थ पर लौटना पड़ा|... लेकिन हाँ वहाँ एक गुलाबी कागज चमक रहा था जहाँ तुम बैठे थे ...मैंने कागज उठाया तो वह ट्रेंन  का टिकट था .. आज की तारीख का .. और गंतव्य मेरा पीहर उसका घर .... तो यह क्या - तुम आधे ही सफर मे उतर गए ... क्या तुमने अभी भी मुझे माफ नहीं किया? मेरे साथ इस यात्रा को पूरा करना तुमने मुनासिब नहीं समझा| मेरी आँखें फिर आसुवों से धुंधली हो चली| तुम आज भी मुझे यूँ छोड़ कर रेल से उतर गए जब कि हमारा तुम्हारा सफर साथ साथ था आखिरी स्टेशन तक .... और एक झटका लगा, रेल ठकड़- ठकड़- ठकड़- ठकड़ कर मुझे ले आगे चल दी और तुमसे दूर, बहुत दूर, कोशों दूर मन.. एक रेलवे स्टेशन की ओर  

   ------------------------------------------------------------------

नियति को कुछ भी मंजूर हो लेकिन एक दिन तुम मैं जब साथ होंगे .. देह के बंधन से ऊपर .... वही हमारा अंतिम पड़ाव होगा|

  डॉ नूतन डिमरी गैरोला 

(मौलिक अप्रकाशित )

Views: 1058

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 8, 2013 at 10:31pm

इस कहानी को पढ़ कर कुछ देर बैठी ही रह गई संज्ञा शून्य सी ,एक अधूरे रिश्ते को परत दर  परत खोलने में कितने  सुन्दर शब्दों का समावेश ,एक तरंगिनी के प्रवाह की तरह आगे बढ़ते रहे जैसे दो किनारे साथ तो चल रहे हैं पर कभी मिलन न हो सका वाह बहुत सुन्दर भाव पूर्ण कहानी बहुत बहुत बधाई सखी |

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 7, 2013 at 8:12am

आप सभी मित्रों को जिन्होंने इस कहानी को शब्द दर शब्द पढ़ा .. और उन्हें पसंद ही नहीं अपितु भावना के गुबार मे उनकी आँखों से आंसू भी निकल पड़े .. गले में हुंक सी उठी और जिन्हें लगा कि पीड़ा की यह अंतहीन यात्रा है जिसमें सहयात्री कोई नहीं .... आपका पुनः तहे दिल शुक्रिया ... मुझे खुशी है कि मेरी कहानी आपको पसंद आई और अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने में कामयाब रही .. धन्यवाद कहूँगी  OBO को भी जहाँ साहित्य के प्रति गहरी रुचि रखने वाले सदस्य हैं ... और जहाँ सीखने सिखाने का मंच है ...

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 7, 2013 at 8:05am

आदरणीय सौरभ जी! शुक्रिया ... शब्दों के मोती और हार जो टिप्पणियों के रूप मिलते हैं ... वाकई ये हार बेमिसाल हैं और अपने मे ही एक सुन्दर कहानी...  इन शब्दों से आप हमें अनुग्रहित करते रहेंगे ... सादर   

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 7, 2013 at 7:58am

आदरणीय विजय निकोर ... जरूर ... आगे भी मैं लिखती रहूंगी... आप सबकी हौसला अफज़ाई मुझे लिखने के लिए प्रेरित करती है ... आपका शुक्रिया 

Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 7, 2013 at 7:56am

आदरणीय विजय मिश्र जी... आपका सादर आभार .. 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 6, 2013 at 7:29am

सरिता के भरे-पूरे लदे-फदे दीखते संसृत जीवन में एक चिर कुँवारी धारा चुपचाप अबाध निस्सृत रहती है जो सदा-सदा अनछुई जीती चली जाती है.. .. किसी उस तीसरे किनारे की निर्निमेष प्रतीक्षा में जो हो कर भी कहीं नहीं होता...

एक झील.. तो एक गाछ.. या कहीं का अव्यक्त शिला खण्ड..  या ऐसा ही कोई..  इन दोनों इकाइयों से अपने-अपने हिसाब से चुपचाप बतियाते रहते हैं..  अनवरत.. . और दोनों चुपचाप सुनते रहते हैं .. ताउम्र.. अनथक उम्मीदों के सहारे.. देह की परधियों को नकारते.. .  

बधाई

Comment by vijay nikore on June 5, 2013 at 3:24pm

आदरणीया नूतन जी:

 

सर्वप्रथम आपको बधाई, अतिशय बधाई।

 

भावनाओं की इतनी प्रचुर वर्षा ! प्रत्येक वाक्य को पढ़ते गले में हूक-सी होती है ... आपको भी तो इसे लिखना आसान न हुआ होगा !

 

आप इतना अच्छा लिखती हैं, मन करता है आपका ऐसा ही लेखन पढ़ने को और मिले, और शीघ्र मिले।

 

पुन: बधाई, और अनेकानेक शुभकामनाएँ।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by विजय मिश्र on June 5, 2013 at 2:31pm
नूतनजी , जजवातों के बहुत ऊँचे ज्वार उठे हैं आपके इस लेख में और परिस्थितिओं के आगे हारा एक विचलित मन की कूह भी स्पष्ट उभर कर आयी है .किसी भावुक के पास गर संयोग से शब्द भी हों स्वेम को बिश्लेषित करने केलिए तो कुछ इतना ही मारूक रूप लेता है .शब्द नहीं हैं कि आपके इस लेख की प्रसंशा करूँ .अद्भुत तालमेल है भावनाओं का शब्दों के साथ . पीड़ा की यह अंतहीन यात्रा है जिसमें सहयात्री कोई नहीं .
Comment by डॉ नूतन डिमरी गैरोला on June 5, 2013 at 1:25pm

अरुण शर्मा अनन्त जी... सादर शुक्रिया ... आपने मन से पढ़ा ..आपका आभार 

Comment by अरुन 'अनन्त' on June 5, 2013 at 1:17pm

आदरणीया आपकी यह रचना पढ़कर आँखें गीली हो गईं, अचानक से धड़कने बढ़ गई एक अजीब सी बेचैनी ह्रदय में समावेश हो गई. ट्रेन बैठने के बाद क्या क्या आभास होता है वो सब आपने बहुत ही सुन्दरता से दर्शाया है और उसपर प्रेम का यह अधूरापन दर्द में लिपटे हुए बीते लम्हों की दास्तान अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आदरणीय नीलेश नूर भाई, आपकी प्रस्तुति की रदीफ निराली है. आपने शेरों को खूब निकाला और सँभाला भी है.…"
9 hours ago
अजय गुप्ता 'अजेय posted a blog post

ग़ज़ल (हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है)

हर रोज़ नया चेहरा अपने, चेहरे पे बशर चिपकाता है पहचान छुपा के जीता है, पहचान में फिर भी आता हैदिल…See More
9 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल - वो कहे कर के इशारा, सब ग़लत ( गिरिराज भंडारी )
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई।"
14 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन।सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
14 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . लक्ष्य
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं हार्दिक बधाई।"
22 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 167 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। इस मनमोहक छन्दबद्ध उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 167 in the group चित्र से काव्य तक
" दतिया - भोपाल किसी मार्ग से आएँ छह घंटे तो लगना ही है. शुभ यात्रा. सादर "
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 167 in the group चित्र से काव्य तक
"पानी भी अब प्यास से, बन बैठा अनजान।आज गले में फंस गया, जैसे रेगिस्तान।।......वाह ! वाह ! सच है…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 167 in the group चित्र से काव्य तक
"सादा शीतल जल पियें, लिम्का कोला छोड़। गर्मी का कुछ है नहीं, इससे अच्छा तोड़।।......सच है शीतल जल से…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 167 in the group चित्र से काव्य तक
"  तू जो मनमौजी अगर, मैं भी मन का मोर  आ रे सूरज देख लें, किसमें कितना जोर .....वाह…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 167 in the group चित्र से काव्य तक
"  तुम हिम को करते तरल, तुम लाते बरसात तुम से हीं गति ले रहीं, मानसून की वात......सूरज की तपन…"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 167 in the group चित्र से काव्य तक
"दोहों पर दोहे लिखे, दिया सृजन को मान। रचना की मिथिलेश जी, खूब बढ़ाई शान।। आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी…"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service