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मेरे  वतन पे  आते हैं सारे जहाँ से लोग - सलीम रज़ा रीवा

221 2121 1221 212
.......
मेरे  वतन  में  आते  हैं  सारे  जहाँ  से लोग.
रहते हैं इस ज़मीन पे अम्न-ओ-अमाँ से लोग.
..
लगता है कुछ खुलुसो  महब्बत मे है कमी.
क्यूं उठ के जा रहे हैं बता दरमियाँ से लोग.
..
तेरा  ख़ुलूस  तेरी  महब्बत  को  देखकर.
जुड्ते  गये हैं आके  तेरे  कारवाँ  से लोग.
..
कैसा  ये  कह्र   कैसी   तबाही   है    खुदा.
बिछ्डे हुए हैं अपनो से अपने मकाँ से लोग.
..
हिन्दी अगर है जिस्म तो उर्दू है उसकी जान .
करते  हैं  प्यार आज भी  दोनों ज़बाँ से लोग.
..
नज़्र-ए-फ़साद  होता रहा घर  मेरा '' रज़ा ''
निकले नहीं मुहल्ले में अपने मकां से लोग.
...........
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SALIM RAZA REWA on October 7, 2017 at 8:36pm

आली जनाब समर साहिब ,आपकी नज़रों से ग़ज़ल गुज़रने के बाद और भी हसीन हो गई है ,
महब्बत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by SALIM RAZA REWA on October 7, 2017 at 8:34pm

जनाब सुशील शर्मा साहिब ,
महब्बत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by Samar kabeer on October 7, 2017 at 5:07pm
मेरे कहे को मान देने के लिये धन्यवाद ।
Comment by Sushil Sarna on October 7, 2017 at 4:34pm

मेरे वतन में आते हैं सारे जहाँ से लोग.
रहते हैं इस ज़मीन पे अम्न-ओ-अमाँ से लोग.
..
लगता है कुछ खुलुसो महब्बत मे है कमी.
क्यूं उठ के जा रहे हैं बता दरमियाँ से लोग.

वाह आदरणीय जी बहुत ही दिलकश अशआर कहे हैं आपने। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।

Comment by SALIM RAZA REWA on October 7, 2017 at 9:55am
आ. दीदी राजेश कुमारी जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया, इस नाचीज़ पर करम बनाए रखे,
Comment by SALIM RAZA REWA on October 6, 2017 at 7:10pm
जनाब तस्दीक़ साहब,
आपकी मुहब्बत का तलबगार
...
Comment by SALIM RAZA REWA on October 5, 2017 at 5:37pm
जनाब अफरोज साहब,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया आपके मशविरे का इंतज़ार था,
Comment by Afroz 'sahr' on October 5, 2017 at 3:57pm
जनाब सलीम रज़ा साहिब ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए आपको बहुत बधाई,,,,,,
Comment by SALIM RAZA REWA on October 5, 2017 at 12:31pm
शुक्रिया मशविरे के मुताबिक बदलाव कर दिया जाएगा.
Comment by Samar kabeer on October 5, 2017 at 11:32am
नहीं किया जा सकता ।

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