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मुक्तक - (रवि प्रकाश)

वज़न-।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ

1. नहीं शिकवा नज़ारों से अगर नज़रें फिसल जाएँ,
भले ख़ामोश आहों में सुहाने पल निकल जाएँ।
तेरी मग़रूर चौखट पे नहीं मंज़ूर झुक जाना,
हमेशा का अकेलापन भले मुझ को निगल जाए॥

.
2. तुम्हारे रूप की गागर न जाने कब ढुलक जाए,
चटख रंगीनियों में भी पुरानापन झलक जाए।
मगर मेरी मुहब्बत तो सदानीरा घटाएँ है,
वहीं अंकुर निकलते हैं जहाँ पानी छलक जाए॥

.
3. किसी जुम्बिश में धड़कन के अभी अहसास बाक़ी है,
अपरिचित आहटों में भी तेरा आभास बाक़ी है।
न जाने कौन सी उम्मीद पे शम्मां भड़कती है,
मिलन अपना असम्भव है मगर विश्वास बाक़ी है॥

मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment by Ravi Prakash on July 21, 2013 at 7:17am
धन्यवाद!
Comment by बृजेश नीरज on July 21, 2013 at 7:13am

अति सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 20, 2013 at 5:35pm

आदरणीय..रवि जी, सुंदर रचना प्रस्तुति पर, आपको हार्दिक बधाई

Comment by Ravi Prakash on July 20, 2013 at 5:17pm
thank you sir
Comment by Abhinav Arun on July 20, 2013 at 2:49pm
आदरणीय  श्री रवि जी बहुत सुन्दर मनमोहक रचना के लिए हार्दिक बधाई - 
तुम्हारे रूप की गागर न जाने कब ढुलक जाए,
चटख रंगीनियों में भी पुरानापन झलक जाए।
मगर मेरी मुहब्बत तो सदानीरा घटाएँ है,
वहीं अंकुर निकलते हैं जहाँ पानी छलक जाए॥
सुन्दर पंक्तियाँ वाह वाह , बंधुवर बहुत शुभकामनायें !!

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