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अमर प्रेम

इससे पहले के तुम दर्पण निहारों

मैं इन केशों में इक वेणी लगा दूँ

 

लो रख दी बाँसुरी धरती पे मैंने

तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ

 

समीरण रुक गई है बहते बहते

कहो तो शाख पेडो की हिला दूँ

 

पवन से वेग की इच्छा अगर है

कहो तो अंक में लेकर झूला दूँ

 

सुगंधित हैं सुमन उपवन के सगरे

बताओ कौन सा मैं पुष्प ला दूँ

 

घटा आकाश में छाने को व्याकुल

कहो तो नयनों में तुमको बिठा लूँ

 

रहेगा प्रेम सदियों तक हमारा

कहो तो इसको भी अमृत पिला दूँ

 

पुकारें लोग राधे-श्याम मुझको

नहीं संभव के मैं तुमको भूला दूँ

 मौलिक व अप्र्काशित

                                                 - प्रदीप देवीशरण भट्ट-06.01.2020

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Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 9, 2020 at 5:45pm

समर जी शुक्रिया, मैं अवश्य सज्ञांन (देखिए फिर गडबड हो गई) लूगाँ।

Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 9, 2020 at 5:44pm

शुक्रिया सुरेंद्र जी

Comment by प्रदीप देवीशरण भट्ट on January 9, 2020 at 5:43pm

शुक्रिया लक्ष्मण जी, फोंट की ज़बरदस्त समस्या है टाइप करते करते अपने बदल जाता है, सुझाव के शुक्रिया

Comment by Samar kabeer on January 9, 2020 at 3:56pm

जनाब प्रदीप जी आदाब,अच्छी रचना हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

जननब लक्ष्मण धामी जी की बात का संज्ञान लें ।

'इससे पहले के तुम दर्पण निहारों'

इस पंक्ति में 'निहारों' को "निहारो" कर लें ।

'तुम्हें गाकर के मैं लोरी सुला दूँ'

इस पंक्ति में 'कर' के साथ 'के' का प्रयोग उचित नहीं,यूँ लिखें:-

'तुम्हें गा गा के में लोरी सुला दूँ'

Comment by नाथ सोनांचली on January 9, 2020 at 6:29am

आद0 प्रदीप देवीशरण भट्ट जी सादर अभिवादन। आपका शब्द चयन और उनकी बुनाई से अलहदा सृजन मन को मोह लेता है। पुकारें लोग राधे श्याम मुझको,, नहीं सम्भव कि मैं तुमको भुला दू,, क्या गज़ब भाव सम्प्रेषण है बन्धुवर। बहुत बहुत बधाई इस सृजन पर। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 9, 2020 at 5:31am

आ. भाई प्रदीप देवीशरण भट्ट जी, सादर अभिवादन।
बहुत अच्छी और भावनाप्रधान रचना हुई है ।ढेरों बधाई स्वीकारें ।" पेडो" की जगह " पेड़ों " कर लीजिएगा।

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