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शराब जब छलक पड़ी तो मयकशी कुबूल है ।

ऐ रिन्द मैकदे को तेरी तिश्नगी कुबूल है ।

नजर झुकी झुकी सी है हया की है ये इंतिहा ।

लबों पे जुम्बिशें लिए ये बेख़ुदी कुबूल है ।।

गुनाह आंख कर न दे हटा न इस तरह नकाब ।

जवां है धड़कने मेरी ये आशिकी कबूल है ।।

यूँ रात भर निहार के भी फासले घटे नहीं ।

ऐ चाँद तेरी बज़्म की ये बेबसी कुबूल है ।।

न रूठ कर यूँ जाइए मेरी यही है इल्तिजा ।

मुझे हुजूऱ अपकी तो बेरुख़ी कुबूल है ।।

ये सुन के मुस्कुरा रहा चराग़ स्याह रात में ।

शलभ ने जब कहा यही ये रोशनी कुबूल है ।।

उसी को ज़ख्म हैं मिले उसी को हर सज़ा मिली ।

जिसे तेरे लिए जहाँ की दुश्मनी कबूल है ।।

बिना रदीफ़ बह्र के लिखी थी मैंने जो कभी ।

मेरे विसाले यार को वो शायरी कुबूल है ।।

ऐ रब जरा बता मुझे कदम कदम की मुश्किलें ।

तेरी ही ज़ुस्तजू में तेरी रहबरी कुबूल है ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on September 29, 2019 at 11:04am

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

ग़ज़ल के सभी अशआर में रदीफ़ और क़वाफ़ी में ताल मेल नहीं है,ग़ौर करें ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 28, 2019 at 6:07pm

बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीय त्रिपाठी जी...

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