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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७२

2122 2122 2122 212

सोचता हूँ तुझमें कब बंदा नवाज़ी आएगी
तेरे तर्ज़े क़ौल में किस दिन गुदाज़ी आएगी //१

मैं अभी बच्चा हूँ मुझको छेड़ते हो किसलिए
मैं बड़ा भी होऊँगा, क़द में दराज़ी आएगी //२

देखता तो है पलट कर वो इशारों में अभी
मुस्कुराएगा वो कल, तब-ए- तराज़ी आएगी //३  

तेरा ये हुस्ने मुजस्सम और मेरी दीवानगी
मिल गए हम दोनों फिर क्या क्या फराज़ी आएगी //४  

सरगुज़श्ते ज़िंदगी फिर से लिखेंगे ऐ क़ज़ा
हाथ में फिर से हमारे हारी बाज़ी आएगी //५ 


मैं गिरफ़्तारे मुहब्बत हूँ, मुझे ठुकरा नहीं
उल्फ़ते बर हक़ पसे इश्के मजाज़ी आएगी //६  

कर ख़ुदाई से मुहब्बत, खल्क भी होगी मुरीद
कृष्ण के जैसे तुझे भी नयनवाज़ी आएगी //७ 

मैं नहीं कहता ख़ुदा मिल जाएगा पर ये भी है
सर झुकाकर सज्दे में तब-ए-नियाज़ी आएगी //८ 

राज़ हम समझेंगे तू भी शायरे क़ामिल हुआ 
जब तेरे तर्ज़े सुखन में जाँ गुदाज़ी आएगी //९ 


~ राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

तर्ज़े क़ौल- कथन कहने की शैली; गुदाज़ी- मांसल होना; दराज़ी- लम्बाई; सादासिफ़त-सरल स्वभाव का; तब-ए-तराज़ी- सहमति का स्वभाव, रजामंदी; फराज़ी- बुलंदी, ऊँचाई; उल्फ़ते बर हक़- सच की मुहब्बत; सरगुज़श्त- कहानी, वृत्तांत; क़ज़ा- मृत्यु; पसे इश्के मजाज़ी- सांसारिक/ भौतिक प्रेम के बाद; नयनवाज़ी - बाँसुरी बजाना; तब-ए-नियाज़ी- विनम्रता का स्वाभाव; कामिल- पूर्ण; शिराज़ी- पर्शिया का एक महान सूफ़ी शायर

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Comment by राज़ नवादवी on November 22, 2018 at 5:43pm

आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब. ग़ज़ल में शिरकत और इस्लाह का तहे दिल से शुक्रिया. जैसा कि आपने बताया है, ये दोनों अशआर हटा देता हूँ. एक बात पूछनी थी-

क्या मतले में नाज़ और ताज को ले सकते हैं? एक में नुक़ता है, नाज़ में, दूसरे में नहीं, ताज में. यदि हाँ, तो क्या फिर उस ग़ज़ल में हर क़ाफिये में नुक़ते की बंदिश ज़रूरी नहीं होगी? मैंने ऐसा किसी लेख में पढ़ा था. कृपया इस्लाह करें. 

सादर. 

Comment by Samar kabeer on November 22, 2018 at 5:34pm

जनाब राज़ साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है बधाई स्वीकार करें ।

तेरे बस देखे से ही फ़ित्ना मिजाज़ी आएगी'

इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है सहीह शब्द है "मिज़ाजी"

' तुझपे भी जब कैफ़ियत मिस्ले शिराज़ी आएगी'

इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है सहीह शब्द है "शीराज़ी"

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