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जहाँ का दर्द समाया.....

( ग़ज़ल )
जहाँ का दर्द समाया सभी की आह में है।
तमाम शहर का मंज़र मेरी निगाह में है।।

जिसे भी कमियों से उसकी किया ज़रा आगाह।
बड़ा सा दाग़ दिखाता वो शख़्स माह में है।।

तमाम ख़ार में इक आध गुल कहीं दिखता।
बहार गर्दिश-ए-सहरा की ज्यूँ पनाह में है ।

बचा रहा है बशर ख़ुद को हक़ बयानी से ।
के ख़ौफ़ इतना है जैसे वो क़त्ल गाह में है।।

नहीं है कुछ भी ख़बर रोज़-ए-हस्र क्या होगा।
फँसा हर एक बशर शौक से गुनाह में है।।

जो कर रहीं हैं सभी साँस की लहरों पे सफ़र।
हर एक कश्ती वो तूफ़ान की निगाह में है।।

तलाशग़ीर है तू साहिल-ए-समंदर पर।
जो एक गौहर-ए-नायाब इस की थाह में है।।

गुरूर का है नश्आ फ़र्क इस लिये अय"राज़"।
सफेद से भी कहाँ दिख रहा सियाह में है।।

विवेक मिश्र("राज़"खैराबादी)
अप्रकाशित वा मौलिक

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 26, 2018 at 4:19pm

आ. विवेक जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by राज़ नवादवी on November 23, 2018 at 5:57pm

जहाँ का दर्द समाया सभी की आह में है।
तमाम शहर का मंज़र मेरी निगाह में है।।

वाह वाह बहुत खूब जनाब विवेक राज जी, ख़ूबसूरत मतला. सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए बधाई. सादर. 

Comment by Vivek Raj on November 23, 2018 at 11:59am

आदरणीय उत्साह वर्धन हेतु आपका आभारी रहूँगा।

Comment by TEJ VEER SINGH on November 23, 2018 at 11:41am

हार्दिक बधाई आदरणीय विवेक राज जी। बेहतरीन गज़ल।

बचा रहा है बशर ख़ुद को हक़ बयानी से ।
के ख़ौफ़ इतना है जैसे वो क़त्ल गाह में है।।

Comment by Vivek Raj on November 22, 2018 at 7:04pm
आदरणीय.सादर सप्रेम नमस्ते .आप का बहुत बहुत शुक्रिया,इन सुझावों के लिये आभारी रहूँगा।तख़ल्लुस "राज़ "ही है
Comment by Samar kabeer on November 22, 2018 at 5:25pm

जनाब विवेक "राज़" साहिब आदाब, मजरूह की ज़मीन में ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

नहीं है कुछ भी ख़बर रोज़-ए-हस्र क्या होगा'

इस मिसरे में 'हस्र' को "हश्र" कर लें ।

' जो कर रहीं हैं सभी साँस की लहरों पे सफ़र'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें ।

एक बात समझ नहीं आई कि आपका तख़ल्लुस "राज़" (raz)  है,फिर आपने प्रोफाइल में "राज"(raj)  क्यों लिखा है?

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