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सबस्टिट्यूट (कहानी)

रमीज़ अपनी क्रिकेट टीम का बहतरीन विकेट कीपर बल्लेबाज होते हुए भी लगातार अपनी टीम के साथ नहीं खेल सका वजह थी टीम में पहले से एक सीनियर विकेट कीपर बल्लेबाज मोजूद था जब जब वो अनफ़िट होता या किसी और वजह से नहीं खेल पाता तब ही रमीज़ को टीम में खेलने का मोक़ा मिलता और रमीज़ उस मौक़े का भरपूर फायदा उठाते हुए उम्दा से उम्दा प्रदर्शन करता लेकिन बावजूद इसके भी सीनियर खिलाड़ी के आते ही अगले मेचों में फिर पहले की तरह रमीज़ को पेवेलियन में बेठकर मेच देखना पड़ता!
वक़्त गुज़रता रहा अब रमीज़ ने क्रिकेट खेलना भी छोड़ दिया था और अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मशग़ूल हो गया था!
ग़ज़ाला जिसे कमसिनी के दिनों से ही रमीज़ बेहद पसंद करता था लेकिन कभी अपनी हिम्मत को यकजा करके ग़ज़ाला से इज़हार ए मुहब्बत न कर सका ग़ज़ाला की आँखों में बारहा रमीज़ ने मुहब्बतों की रमक़ महसूस की लेकिन रमीज़ शायद एहसास ए कमतरी में मुब्तिला हो चुका था काबलियत के बावजूद क्रिकेट टीम में लगातार न खेल पाने की टीस ने शायद उसकी ज़िन्दगी पर बहुत गहरा प्रभाव डाल दिया था!
बग़ैर इज़हार किए ही ग़ज़ाला और रमीज़ दोनों की आँखों में एक दूसरे से सामना होते ही मुहब्बतों की बेपनाह दास्तानें पढ़ी जा सकती थी! वक़्त अपनी रफ़्तार से गुज़र रहा था कि एक दिन ग़ज़ाला ने रमीज़ की मुलाकात यासीर से कराई रमीज़ बे साख़ता दोनों को बस तके जा रहा था और ग़ज़ाला अपनी दास्तान सुनाती जा रही थी!
"रमीज, यासीर और में एक दूसरे से बहुत मुहब्बत करते हैं और हमने हमेशा के लिए एक दूसरे के साथ रहने का फ़ेसला कर लिया है ". ग़ज़ाला तो बोलती ही चली जा रही थी लेकिन रमीज़ इस से आगे कुछ भी नहीं सुन सका था
रमीज़ ने कुछ दिनों बाद ख़ुद को बहलाने के लिए शहर से बाहर जाने का विचार किया और धीरे धीरे अपने आप को यकजा करता रहा! वो अब पहले से कहीं ज़्यादा ख़ुद को सँभालने में हालात से मुक़ाबला करने में सक्षम हो गया था।
वक़्त बदल चुका था हालात तबदील हो चुके थे और इन्हीं बदलते हुए हालात में एक बार फिर ग़ज़ाला से रमीज़ की मुलाक़ात हो गई ये मुलाकात बहुत ही ख़ास इस्लिए भी थी के इस बार एक दूसरे से मुलाकात पर आँखों से बातें न करते हुए दोनों ने ही ज़ुबान और दिल से ढ़ेर सारी बातें की थी।
ग़ज़ाला की बातों से ज़ाहिर हो चुका था कि रमीज़ के दिल में जो जज़्बात का सैलाब ग़ज़ाला के लिए एक मुद्दत से उमड़ रही था वही ग़ज़ाला के दिल में भी इतनी ही मुद्दत से था
रमीज़ को लगने लगा जैसे धुनक के सातों रँग उसकी ज़िन्दगी में ख़ुशियां ही ख़ुशियां भर देने के लिए मचल रहे हैं रमीज़ जो अब तक आशिक़ों को मज़लूम और माशूक़ाऔं को ज़ालिम और बेदर्द समझता था आज ग़ज़ाला को मसीहा ए मुहब्बत का लक़ब देने को बेताब था !
ग़ज़ाला की मुहब्बत के सहारे ने उसे अपनी ख़ुशनसीबी पर फ़ख्र करने और ख़ुशी से नाचने झूमने का मोक़ा जो दे दिया था!
ग़ज़ाला की बातें उसके वादे उसकी क़समें, रमीज़ को मसरूर किए जा रही थी !
रमीज़ की ज़िन्दगी का ये सबसे सुनहरा और पुरबहार वक़्त चल रहा था इस बहारों के मौसम में खुशियों के तराने गुनगुनाता रमीज़ ग़ज़ाला से मिलने जा रहा था उसके घर पहुंचते ही रमीज़ के क़दम ठिठक कर दहलीज़ पर ही रुक गए कमरे से यासीर और ग़ज़ाला की बातों की आवाज़ें आ रही थीं माफ़ी तलाफ़ी की जा रही थी उनकी बातें सुनते हुए रमीज़ ख़यालों में पेवेलियन लोट चुका था मेन बेट्समेन की टीम मे वापसी हो चुकी थी रमीज़ "सबस्टीट्यूट" के अपने पुराने रोल में ख़ुद को मेहसूस कर रहा था और उसके ख्वाबों के बनाए महल उसकी आँखों के सामने दरकते जा रहे थे!

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by mirza javed baig on November 18, 2018 at 8:49pm

जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब, 

हौसला अफजा़ई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया 

Comment by mirza javed baig on November 18, 2018 at 8:48pm

जनाब राज़ नादवी साहिब आदाब, 

बहुत बहुत शुक्रिया मुहतरम

Comment by TEJ VEER SINGH on November 13, 2018 at 11:16am

हार्दिक बधाई आदरणीय मिर्ज़ा जावेद बेग जी।बेहतरीन कहानी।

Comment by राज़ नवादवी on November 12, 2018 at 3:17pm

आपका स्वागत है जनाब समर कबीर साहब. सादर 

Comment by Samar kabeer on November 12, 2018 at 2:42pm

इस जानकारी के लिए शुक्रिया,राज़ साहिब ।

Comment by राज़ नवादवी on November 12, 2018 at 1:47pm

'दरकना, शब्द बिहार एवं अन्य पूर्वांचल के राज्यों में इस्तेमाल किया जाता है जिसका अर्थ है किसी चीज़ में कोई हल्का शिगाफ़ या दरार का पड़ जाना. सादर 

Comment by Samar kabeer on November 12, 2018 at 11:45am

"दरकना" शब्द मेरे लिए नया है, शायद ये आँचलिक भाषा से है, शुक्रिया ।

Comment by mirza javed baig on November 11, 2018 at 7:40pm

मुहतरम शैॆख़ उस्मान साहिब आदाब

आपकी हौसला अफ़ज़ाई से यक़ीनन नई ऊर्जा मिलेगी। 

आईंदा, और बहतर कहने की कोशिश करूंगा बहुत बहुत शुक्रिया 

Comment by mirza javed baig on November 11, 2018 at 7:37pm

आली जनाब समर कबीर साहिब आदाब ,

हौसला अफ़जा़ई के लिए मशकूर हूँ

मुहतरम टंकन त्रूटी नहीं है शायद आपको मेरे दरकना लफ़्ज़ के इस्तेमाल की वजह से एसा लगा होगा। 

दरकना यानी धीरे धीरे टूटना बिखरना    

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 10, 2018 at 5:19pm
  1. आदाब।  प्यार-मुहब्बत-इज़हार-बेक़रार वाले सामान्य कथानक में क्रिकेट, बेट्समेन और पेवेलियन, सब्सटीट्यूट के मोती तुलनात्मक रूप से जोड़ने पर कहानी न सिर्फ़ दिलचस्प और प्रवाहमय बन गई, बल्कि कई अनुभवी आशिकों को अतीत की सैर करा कर सब्सटीट्यूशन के वाक्यात याद कराकर रुला गई होगी। तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मिर्ज़ा जावेद बेग़  साहिब। /सबस्टिट्यूट = सब्सटीट्यूट/

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