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'बिसात पर नूरा-कुश्ती' (लघुकथा)

"हमने कई थी न कि देर है अंधेर नईं! सबके साथ सबके दिन फिर रये! सो अपने भी दिन फिरहें!" नदी किनारे बैठे हुए एक बाबा ने दूसरे साथी बाबाओं से किया अपना दावा दोहराते-सिद्ध करते हुए कहा - "अपने कित्ते बाबा अंतर्राष्ट्रीय हो गये, ध्यान और योग से उद्योग जम गओ, ... एक और बाबा हाईटेक हो गओ!"
"हओ! मंत्री बनत-बनत रह गये; लेकिन अब रस्ता खुल गओ अपने लाने! धंधा-पानी भी संग-संग चलो करहे अब राम-नाम जपने के साथ! दुनिया खों आयुर्वेद को भेद बहुतई अच्छी तरा समझ में आ गओ!"
"लेकिन गुरु, धरम-करम और तंत्र-मंत्र तो फिर भी करनईं पड़हे! भले वस्त्रालय वाले बाबा अपन की पोशाक और वेश बदलवा दें!" दूसरे बाबा की बात सुनकर अगले ने कहा - "हम तो कह रये, मंदिरों और आश्रमों में भव्य शोरूम की व्यवस्था हो चइये अब तो!"
"हओ, सही कह रये हो! आज की पीढ़ी की ई तरफ़ श्रद्धा भी बढ़ है और हमाओ व्यापार भी!"
"तुम औरें तो बहोत खुस हो रये हो, लेकिन हमें तो ऐसो समझ में आ रओ है कि सबरो विदेशन से भई डीलों को खेल हेगो; देश को कर्जा चुकावे काजें और लोगों को पटावे काजें!" एक चतुर से ज्ञानी बाबा ने ज़मीन पर हाथ मारकर कहा - "तुम्हें इत्तो भी समझ में नईं आ रओ है कि ऐसी तरक्की की आड़ में हमाओ धरम खतरे में डारो जा रओ है! धरम और बाबाओं को घसीट के व्यापार और राजनीति को ज़हरीलो बनाओ जा रओ है नई पीढ़ी को रुझान बदलवे काजें!"
ज्ञानी बाबा की बातें सुनकर बाकियों की चुप्पी और नदी के अंदर-बाहर के प्रदूषण की चीखें उन सबको देश के 'धार्मिक-सांस्कृतिक प्रदूषण' का आभास कराने ही लगीं थीं कि उनमें से एक लेपटॉपधारी युवा बाबा ने शांति भंग करते हुए कहा - "हमें तो ऐसो लग रओ है कि देश-विदेश के 'धनी धंधेबाज' शतरंज की 'बिसात' पे हमें मोहरा बनाके 'नूरा-कुश्ती' सी लड़ रये हैं; दौलत वास्ते, बस!"


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 7, 2018 at 8:41pm

रचना पर उपस्थित होकर अपनी राय देकर अनुमोदन और प्रोत्साहन हेतु सादर हार्दिक धन्यवाद आदरणीय राज़ नवादवी साहिब।

Comment by राज़ नवादवी on November 7, 2018 at 10:36am

आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी साहब, आदाब. अच्छी लघु कथा हुई है, ख़ासकर स्थानीय भाषा में लिखे गए संवाद. मुबारकबाद पेश करता हूँ. सादर 

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