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अस्तित्व की शाखाओं पर बैठे

अनगिन घाव

जो वास्तव में भरे नहीं

समय को बहकाते रहे

पपड़ी के पीछे थे हरे

आए-गए रिसते रहे 


कोई बात, कोई गीत, कोई मीत

या केवल नाम किसी का

उन्हें छिल देता है, या

यूँ ही मनाने चला आता है..

मैं तो कभी रूठा नहीं था

जीने से

बस, आस जीने की टूटी थी,

चेहरे पर ठहरी उदासी गहरी

हर क्षण मातम हो

गुज़रे पल का जैसे

साँसें भी आईं रुकी-रुकी

छाँटती भीतरी कमरों में बातें

जो रीत गईं, पर बीतती नहीं

जाती साँसों में दबी-दबी

रुँध गई मुझको रंध्र-रध्र में ऐसे

सोय घाव, पपड़ी के पीछे जागे

कुछ रो दिए, कुछ रिस दिए

घाव वही जो संवलित था भीतर

और था समझने में कठिन

जाती साँसों को शनै-शनै

था घोट रहा 

ऐसी अपरिहार्य ऐंठन में

अपरिमित घाव समय के

कभी भरते भी कैसे ?

लाख चाह कर भी कोई

स्वयं को समेट कर, बहका कर

घाव समय के भूल सकता है कैसे ?

              ----------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on July 14, 2018 at 8:47pm

बेहतरीन भावाभिव्यक्ति 

Comment by Neelam Upadhyaya on July 14, 2018 at 3:43pm

आदरणीय विजय नारे जी, नमस्कार। सुन्दर पंक्तियों की सर्र्जना के लिए हार्दिक बधाई।

कृपया ध्यान दे...

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