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कविता --हाँ, हमें अभी और देखना है

हाँ , हमें अभी और देखना है
टूटते शहर का मंज़र
रिश्तों में उलझी संवेदनहीनता का दंश
अपनों के बीच परायेपन का अहसास
घुट घुटकर रोज़ मरना
पीढ़ियों के अंतर की गहरी खाई में गिरना
निर्मम व्यवस्था का शिकार होना
हाँ, हमें अभी और देखना है
लालच का उफनता समुद्र
अकेलेपन के चुभते काँटें
बीमार बाप के लरजते हाथ
झुर्रियों की ख़ामोशियाँ
बेचैन माँ की प्रतीक्षा
कर्कश तरंगों का शोर
विघटन की शैतानी लकीरें
भरोसे में लालच के दैत्य
ठहरा आत्मविश्वास
आवारा विचारों की श्रृंखलाएँ
समृद्धि की चिलचिलाती धूप
हाँ, हमें अभी और देखना है
हम सबको मिल बाँटकर सहना है ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by Mohammed Arif on June 8, 2018 at 12:07pm

रचना पर सटीक प्रतिक्रिया देकर मान बढ़ाने हार्दिक आभार आदरणीय महेंद्र कुमार जी ।

Comment by Mohammed Arif on June 8, 2018 at 12:06pm

रचना पर सटीक प्रतिक्रिया देकर मान बढ़ाने का हार्दिक आभार आदरणीया बबीता गुप्ता जी ।

Comment by Mahendra Kumar on June 8, 2018 at 11:42am

वर्तमान समाज के विकृत चेहरे को उजागर करती बढ़िया कविता है आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी. इस सृजन पर हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by babitagupta on June 8, 2018 at 11:20am

कविता में संक्षिप्त वाक्यों द्वारा भावी जीवन का अंदेशा उद्धत किये गये हैं, जो वास्तव में वर्तमान रवैये को देखते हुए चिन्तनीयहै।प्रस्तुत रचना पर बधाई , सरजी। 

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