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ग़ज़ल- फँस गया जाल में शिकारी खुद

बह्र- फाइलातुन मफाइलुन फैलुन

2122 1212 22

मार कर पेट में कटारी खुद।
मर गया एक दिन मदारी खुद।

अपने कर्मों से वो जुआरी खुद।
हो न जाये कभी भिखारी खुद।

पड़ गये दाँव पेंच सब उल्टे,
फँस गया जाल में शिकारी खुद।

आगये दिन हुजूर अब अच्छे
दान देने लगे भिखारी खुद।

हैं नशामुक्ति के अलम्बरदार,
पर चलाते हैं वो कलारी खुद।

खानदानी हुनर है बच्चों में,
सीख लेते हैं दस्तकारी खुद।

कर्ज बेटा चुका न पाया तो,
वो चुकाने लगे उधारी खुद।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 7, 2018 at 5:03am

आदर्णीय समर कबीर सर जी ग़ज़ल पसन्दगी एवं  हौसला बढ़ाने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 7, 2018 at 5:00am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ग़ज़ल सराहना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on April 7, 2018 at 4:58am

आदर्णीय नीलेश जी ग़ज़ल सराहना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद मैने इस मिसरे की तख्ती इस प्रकार की है

'हैंनशामुक्  तिकेअलम्   बरदार' 

2122           1212           22/112

कृपया बताने का कष्ट करें कहाँ पर चूक हुई है। जिससे मैं मिसरा सुधार सकूँ। सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 6, 2018 at 8:12pm

आ. भाई राम अवध जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on April 6, 2018 at 2:34pm

जनाब राम अवध जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई, बधाई स्वीकार करें ।

बाक़ी जनाब निलेश जी कह चुके ।

Comment by Neelam Upadhyaya on April 6, 2018 at 11:28am

आदरणीय राम अवध जी, अच्छी गजल के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 6, 2018 at 8:30am

आ. राम अवध जी,
अच्छी ग़ज़ल के लिए   बधाई 
.
हैं नशामुक्ति के अलम्बरदार,/// ये मिसरा बहर में नहीं है ..देख लीजियेगा 
सादर 

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