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तब्दीले आबोहवा

तब्दीले आबोहवा

न सवाल बदला, न जवाब बदला....

न  मंज़र  न  मक़ाम  बदला

कागज़ के उड़ते चिन्दे-सा हूँ मैं

उड़ा दिया हवा ने जब-कभी

उड़ा जिधर रुख हवा ने बदला

चाह कर भी न बदल सका

न खुद को न खुदाई को मैं

हाँ, कई बार क़िर्वात  का

आदतन क़ुत्बनुमा बदला

गुज़रा जब भी तुम्हारी गली से

बेरहम बेरुखी के बावजूद भी

साँकल खटखटाई हरबार

न  आई चाहे  तुम दरवाज़े  पर

मैं  बाअदब  झुका, पढ़ी  नमाज़

दहलीज़ को तुम्हारी सलाम किया

खताकार हूँ, पूछ सकता हूँ क्या

तुमसे  एक  छोटा-सा  सवाल....

मंज़िले  मकसूद  से  पहले  ही

मेरी  दोस्त, क्या  तुम्हें  भी

ज़माने  कीे  गुस्स:वर  गूनागून

बेदर्द ज़ालिम हवा ने बदला ?

               -----

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

तबदीले आबोहवा =  जलवायु का बदलना

मंज़र                  =  दृश्य, दृष्टि का अंत

मक़ाम                =  स्थान, ठहरने की जगह

खुदाई                 = संसार, ईश्वरत्व

क़िर्वात                = नाव

क़ुत्बनुमा             = दिशा बताने वाला यंत्र

बाअदब               = शिष्टता के साथ

खताकार             =  अपराधी, पापी

मंज़िले मकसूद     =  वह स्थान जहाँ पहुँचना है

गुस्स:वर              = क्रोधी

गूनागून               = रंग-बिरंगी

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Comment

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Comment by Samar kabeer on April 12, 2018 at 11:19am

जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,ये कविता भी बहुत  ख़ूब हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 11, 2018 at 7:51pm

बेहतरीन शब्दार्थों सहित शब्दों अर्थात बिम्बों में बदली हुई आबो-हवा में बेहतरीन अभिव्यक्ति के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और शुक्रिया मुहतरम जनाब विजय निकोरे साहिब। मज़ा आ गया रचना पढ़कर।

Comment by vijay nikore on March 28, 2018 at 9:01am

सराहना के लिए आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय सुरेन्द्र जी

Comment by नाथ सोनांचली on March 28, 2018 at 4:37am

आद0 विजय निकोर जी सादर अभिवादन। बढिया रचना। इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये । सादर

Comment by vijay nikore on March 25, 2018 at 9:36pm

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपसे मिली इस सराहना के लिए हृदयतल से आभारी हूँ। हमेशा हिन्दी में अतुकान्त कविताएँ लिखता रहा ... अब एक सप्ताह से उर्दु नज़्में लिख रहा हूँ और उर्दू शब्दावली का प्रयोग कर रहा हूँ। विधा... नज़्म शूरू तो अतुकान्त करी थी, लिखते-लिखते उसमें rhyme भी आ गया। कोई भी रचना को लिखने के बाद मैं उसको मन ही मन गुनगुनाता हूँ... लय को check करने के लिए ...इस नज़्म को भी गुनगुनाया और यथायोग्य परिवर्तन किए। आपसे सराहना मिली, आभारी हूँ बहुत।

Comment by vijay nikore on March 25, 2018 at 9:25pm

 सराहना के लिए आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय अजय जी।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 25, 2018 at 8:05pm

कोई नहीं बचा साहिब तब्दीले आबो-हवा से! ग़ज़लनुमा भावपूर्ण बेहतरीन रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और शुभकामनाएं मुहतरम जनाब विजय निकोरे साहिब। ये कौन सी विधा में कही गई है? कठिन शब्दों के अर्थ के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।

Comment by Ajay Tiwari on March 25, 2018 at 11:40am

आदरणीय विजय जी, सहज सी लगती पंक्तियों में बहुत अच्छी कविता! हार्दिक बधाई. 

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