मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुतफाइलुन मुतफाइलुन
11212 11212 11212 11212
जरा-सा छुआ था हवाओं ने, कि नदी की देह सिहर गयी
तभी धूप सुब्ह की गुनगुनी, उन्हीं सिहरनों पे उतर गयी
खिली सरसों फिर से कछार में, भरे रंग फिर से बहार में
घुली खुश्बू फिर से बयार में, कोई टीस फिर से उभर गयी
उसी एक पल में ही जी लिए, उसी एक पल में ही मर गए
वही एक पल मेरी सांस में, तेरी सांस जब थी ठहर गयी
जमी जर्रा-जर्रा थी रात भर, हरी बालियों की जो नोक पर
उसी ओस जैसी है जिंदगी, जरा-सी हिली कि बिखर गयी
तुझे कुछ तो होगा अता पता , फ़कत इतना मुझको तू दे बता
वो जो मेरे हिस्से की थी ख़ुशी, वो अगर गयी तो किधर गयी
तू जो कहता है वो है खूबतर, ये है कैसा जादू बता मगर
जो भी चीज आनी थी मेरे घर, वो पलट के तेरे ही घर गयी
कभी ठीक से मै जिया नहीं, कभी ध्यान खुद पे दिया नहीं
जो भी करना था वो किया नहीं, युँ ही उम्र सारी गुज़र गयी
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण जी, हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय सुरेन्द्र जी, हार्दिक धन्यवाद.
आ. भाई अजय जी, खूबसूरत गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आद0 अजय तिवारी जी सादर अभिवादन। बेहद खूबसूरत ग़ज़ल कही आपने, अंदाजे बयाँ का क्या कहना। जादू है।
जमी जर्रा-जर्रा थी रात भर, हरी बालियों की जो नोक पर
उसी ओस जैसी है जिंदगी, जरा-सी हिली कि बिखर गयी।
वाह वाह। शेर दर शेर दाद और मुबारकबाद कुबूल करें, सादर
आदरणीय सुशील जी, आपके पुनः उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद. एक अनुरोध ये कि 'सर' न लिखे, आप हर लिहाज़ से वरिष्ठ हैं. सादर.
आदरणीय समर साहब, आपके आश्वासन के लिए, हार्दिक धन्यवाद.
जरा-सा छुआ था हवाओं ने, कि नदी की देह सिहर गयी
तभी धूप सुब्ह की गुनगुनी, उन्हीं सिहरनों पे उतर गयी
वाह क्या बात है ... इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।
कोई बात नहीं ।
असावाधनी से 'मौलिक/अप्रकाशित' न लिखा होने की वजह से ग़ज़ल फिर से पोस्ट करनी पड़ी और आप सब की मूल्यवांन प्रतिक्रियाएं रीस्टोर नहीं हो पायीं. इस के लिए आप सब से क्षमाप्रार्थी हूँ.
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