221 2121 1221 212
इंसानियत के तंग सभी दायरे हुए।
दिखते नहीं हैं लोग जमीं से जुड़े हुए।।
जो सुर्खियों में रहते हमेशा बने हुए।
रहते है लोग वो ही ज़ियादा डरे हुए।।
आहट हुई जरा सी बुरे वक़्त की तभी।
कुछ साँप आस्तीन से निकले छुपे हुए।।
वो इस लिये खड़ा है बुलन्दी पे आज भी।
डरता नहीं है झूठ कोई बोलते हुए।।
ख्वाबों में देखता हूँ जिसे रोज रात में।
कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे सोचते हुए।।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक बधाई..
आलरणीय सुरेंद्र इंसान जी आदाब,
हार्दिक बधाई इस दिलकश ग़ज़ल के लिए आदरणीय।
वाह एक बेहतरीन ग़ज़ल आपकी कलम से आदरणीय सुरेंद्र जी । "आहट हुई....." बहुत खूब !! दाद !!
जनाब सुरेन्द्र इंसान जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
"ख़्वाबों में देखता हूँ जिसे रोज़ रोज़ मैं
कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे देखते हुए'
इस शैर में 'देखता' देखते' और "मैं" शब्द दोनों मिसरों में होने से शैर का हुस्न ख़त्म हो गया है,ऊला इसे यूँ कर सकते हैं। :-
'हर शब जो मेरे ख़्वाब में आता है दोस्तो
कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे देखते हुए'
ख्वाबों में देखता हूँ जिसे रोज रोज मैं।
कहता हूँ अब ग़ज़ल मैं उसे देखते हुए।।
बहुत ख़ूब ....http://malhars.in/sochta-hun/
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