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ग़ज़ल नूर की- ग़लत को गर ग़लत कहना ग़लत है

१२२२/१२२२/१२२
.
ग़लत को गर ग़लत कहना ग़लत है   
मेरा दावा है ये दुनिया ग़लत है.
.
अगर मर कर मिले जन्नत तो फिर सुन
तेरा इक पल यहाँ जीना ग़लत है.
.
हमारी बात का मतलब अलग था,
अगरचे आप ने समझा ग़लत है.
.
मुझे है तज़्रबा तुम से ज़ियादा
मेरी मानों तो ये रस्ता ग़लत है.
.
कहानी में तो मिल जाते हैं दोनों
हक़ीक़त में जुदा होना ग़लत है.
.
कहे नंगे को नंगा एक बच्चा
कहे दरबार वह बच्चा ग़लत है.  
.
ग़लत साबित मुझे करने की ज़िद में
तुम्हारा यूँ बहक जाना ग़लत है.
.
तो आओ “नूर” से आँखे मिलाकर
बताओ उस को वो कितना ग़लत है.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

 

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Comment

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Comment by नादिर ख़ान on March 11, 2018 at 11:32pm

आदरणीय नीलेश जी बहुत खूब कहा ....

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 11, 2018 at 10:54pm

आ. भाई नीलेश जी, बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 11, 2018 at 4:39pm

शुक्रिया आ सुरेंद्र जी

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 11, 2018 at 4:37pm

शुक्रिया आ, समर सर, मैं तज़रिबा जैसा आपने लिखा है वैसा ही लिखना चाहता था लेकिन टाइपिंग में ऑप्शन्स ही नहीं मिल सके।

आपके उत्साहवर्धन हेतु आभार

Comment by surender insan on March 11, 2018 at 4:37pm

वाह वाह वाह वाह

शेर दर शेर दिली दाद हाजिर। 

बहुत बहुत मुबारक़बाद इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए।

Comment by Samar kabeer on March 11, 2018 at 3:00pm

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,हालात-ए-हाज़िरा पर कटाक्ष करती बहतरीन ग़ज़ल हुई है,

'तो आओ "नूर" से आँखें मिलाकर

बताओ उसको वो कितना ग़लत है'---वाह बहुत ख़ूब 

शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

तज़्रबा--तज्रिबा

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