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बड़े बेटे ने माँ के फटे पुराने कपड़े इकट्ठे किए । दूसरा बेटा चश्मा और छड़ी ढूँढकर लाया । तीसरे ने दवाई की शीशी और पुड़ियाँ अलमारी से निकाली । छोटी बहू कड़वा ताना देती हुई बोली-" जाने कब मरेगी । लगता है कोई अमर बूटी खाकर आई है ।" चारों मिलकर माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आए । अब चारों ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला -चिल्लाकर सभी को बता रहे हैं कि माँ अपनी राजी-मर्जी से हमेशा के लिए अपनी बेटी के घर चली गईं ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by Mohammed Arif on March 6, 2018 at 6:04pm

अद्भुत , बेजोड़ और बहुत ही ईमानदाराना टिप्पणी । दरअसल मैं आपकी ही टिप्पणी की बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहा था । अब जाकर राहत मिली । बहुत-बहुत आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 6, 2018 at 5:58pm

आर्थिक तंगी‌या रईसी; रोज़गार के बंधन और शर्तों या बेरोज़गारी/अस्थाई रोज़गार ने भावपूर्ण नज़दीक़ी रिश्तों तक की धज्जियां उड़ा दीं हैं मां का रिश्ता कैसे अछूता रहता। बच्चों की बुद्धि भ्रष्ट हो रही है। लघु रचना में गहरी बातें सम्प्रेषित करती बेहतरीन विचारोत्तेजक सृजन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब। जो भोगते हैं वे जानते हैं कि हालात ऐसी विसंगतियों के चलते  ऐसे संवाद करवा देते हैं।

Comment by Mohammed Arif on March 6, 2018 at 5:58pm

रचना के निरपेक्ष अनुमोदन और उत्साहवर्धन का बहुत-बहुत आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी ।

Comment by TEJ VEER SINGH on March 6, 2018 at 11:29am

हार्दिक बधाई आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।आज के हालत में बहुत प्रासंगिक लघुकथा।अधिकांश परिवारों में यही हो रहा है।बेहतरीन प्रस्तुति।

Comment by Mohammed Arif on March 6, 2018 at 11:24am

बहुत -बहुत शुक्रिया आरणीय असरार धारवी जी । इसी तरह नज़रे इनायत करते रहें ।

Comment by ASRAR DHARVI on March 6, 2018 at 11:13am
बहुत खूब जनाब आरिफ साहिब वाह्ह्ह्ह्ह्ह्

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