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गजल(लूटकर घर का खजाना....)

लूटकर  घर का खजाना भाग जाता आदमी
चंद सिक्कों के लिए भी मार खाता आदमी।1

बिक रहे कितने पकौड़े,चुस्कियों में प्यालियाँ,
और ठगकर आपसे भी मुस्कुराता आदमी।2

योजनाएँ चल रहीं पर हो रहीं नादानियाँ
देखकर यूँ हाल अपना खुद लजाता आदमी।3

सच कहा जाता नहीं,कह दे अगर,बदकारियाँ
तिलमिलाती बात है फिर थरथराता आदमी।4

रोक सकता दुश्मनों को देख लो जाँबाज दिल
भेदियों से घर में लेकिन मात खाता आदमी।5

खेत में होते हवन से हाथ जलते हैं बहुत
कर चुकाने में फसल भी हार जाता आदमी।6

घायलों को मरहमों से कब नवाजोगे यहाँ
घाव देकर पागलों-सा खिलखिलाता आदमी।7

शोर मचता है उसीका चल रहा झंडा लिए
खुद सँभलता है कहाँ बस लड़खड़ाता आदमी।8

पूँछ में पगड़ी लपेटे भागते सब आजकल
भैंस-भाषा भाषियों को सिर बिठाता आदमी।9
@

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 2, 2018 at 1:20pm

आ. भाई मनन जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Manan Kumar singh on March 1, 2018 at 10:39pm

आदरणीय समर जी आदाब व आभरा! अरकान लिखना रह गया है।हाँ, 'फसल' शब्द अब हिंदी/उर्दू में नया नहीं रह गया है,सर्वग्राह्य हो चुका है,सादर।

Comment by Manan Kumar singh on March 1, 2018 at 10:36pm

आभारी हूँ आदरणीय विश्वकर्मा जी,शुक्रिया।

Comment by Manan Kumar singh on March 1, 2018 at 10:36pm

बहुत बहुत आभार आदरणीय हर्ष जी।

Comment by Samar kabeer on March 1, 2018 at 2:06pm

जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

6ठे शैर में सही शब्द है "फ़स्ल" देखियेगा ।

मंच के नियमानुसार आपने ग़ज़ल के साथ अरकान नहीं लिखे?

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on February 27, 2018 at 9:39pm

घाव देकर पागलों सा खिलखिलाता आदमी। 

वाह क्या कहने। बधाई स्वीकारें।

Comment by Harash Mahajan on February 27, 2018 at 11:35am

"कर चुकाने में फसल भी हार जाता आदमी"....वाह बहुत खूब आदरणीय मनन साहब । दाद हाज़िर है जनाब । वसूल पाइयेगा ।

सादर

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